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अनन्तान्पुद्गलावन्ननन्तानन्तरुपभृत् । अनन्तशो भ्रमत्येव जीवोऽनादिभवार्णवे ॥३६ ॥ अनुष्टप्
अर्थ :- यह जीवात्मा इस अनादि भवसागर में अनन्तअनन्त रुपों को धारणकर अनन्त-अनन्त पुद्गलपरावर्त तक भटकता रहता है ॥३६॥
॥ तृतीय भावनाष्टकम् ॥ कलय संसारमतिदारुणं, जन्म-मरणादिभयभीत रे। मोहरिपुणेह सगलग्रहं, प्रतिपदं विपदमुपनीत रे॥ कलय॥३७॥
अर्थ :- जन्म-मरण आदि के भय से भयभीत बने हे प्राणी । तू इन संसार की अतिभयंकरता को समझ ले, मोह रुपी शत्रु ने तुझे गले से कसकर पकड़ लिया है और वह हर कदम पर तुझे आपत्ति में डाल रहा है ॥३७॥ स्वजनतनयादिपरिचयगुणै-रिह मुधा बध्यसे मूढ रे । प्रतिपदं नवनवैरनुभवैः, परिभवैरसकृदुपगूढ रे ॥ कलयः॥३८॥ ___ अर्थ :- हे मूढ़ ! स्वजन तथा पुत्र आदि की परिचय रुपी डोरी से तू व्यर्थ ही अपने आपको बाँध रहा है । तू कदमकदम पर नये-नये अनुभवों के द्वारा अनेक प्रकार के पराभवों से घिरा हुआ है ॥३८॥ घटयसि क्वचन मदमुन्नतेः, क्वचिदहो हीनतादीन रे। प्रतिभवं रूपमपरापरं, वहसि बत कर्मणाधीन रे॥कलयः॥३९॥
शांत-सुधारस