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कल्पसूत्रं
कल्पलता व्या० ४
॥१०० ॥
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क्रान्ते इत्यर्थः । इमं एतद्रूपं अभिग्रहं अभिगृह्णाति - "नो" नैव खलु निश्चितं मम कल्पते । मातापितृषु जीवत्सु सत्सु मुण्डो भूत्वा, अगारात् अनगारतां प्रत्रजितुं" इति ।
अथ त्रिशला क्षत्रियाणी केन प्रकारेण कीदृशी सती गर्भं वहति ?, तत्राह -
तए णं सा तिसला खत्तियाणी पहाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सवालंकारविभूसिया तं गब्भं नाइसीएहिं नाइउण्हेहिं नाइतित्तेहिं नाइकडुएहिं नाइकसाइएहिं नाइअंबि - लेहिं नाइ महुरेहिं नाइ निद्धेहिं नाइलक्खेहिं नाइउल्लेहिं नाइसकेहिं सब त्तुगभयमाणसुहेहिं भोयणच्छायणगंधमलेहिं ववगयरोगसोगमोहभयपरिस्समा जं तस्स गब्भस्त हिअं मियं पत्थं गब्भपोसणं तं देसे अ काले अ आहारमाहारेमाणी विवित्तमउएहिं सयणासणेहिं परिक्कसुहाए मणोऽणुकूलाए विहारभूमीए पसत्थदोहला संपुष्णदोहला संमाणियदोहला अविमाणिअदोहला वुच्छिन्न दोहला ववणीअदोहला सुहंसुहेणं आसइ सयइ चिट्ठइ निसीअइ तुयहइ विहरड़ सुहंसुहेणं तं गब्भं परिवहन ॥ ९५ ॥
व्याख्या- "तए णं सा" ततश्च सा त्रिशला क्षत्रियाणी स्नाता कृतबलिकर्मा, कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ता
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भगवतः अभिग्रहः, सगर्भा
त्रिशलावर्णनं च
॥१००॥