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विवेक-चूडामणि
वाणीको मनमें लय करो, मनको बुद्धिमें और बुद्धिको बुद्धिके साक्षी आत्मामें तथा बुद्धि-साक्षी ( कूटस्थ ) को निर्विकल्प पूर्णब्रह्ममें लय करके परमशान्तिका अनुभव करो। देहप्राणेन्द्रियमनोबुद्ध्यादिभिरुपाधिभिः
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यैयैर्वृत्तेः समायोगस्तत्तद्भावोऽस्य योगिनः ॥ ३७१ ॥ देह, प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि - इन उपाधियोंमेंसे जिस-जिसके साथ योगीकी चित्तवृत्तिका संयोग होता है उसी उसी भावकी उसको प्राप्ति होती है।
तन्निवृत्त्या मुनेः सम्यक्सर्वोपरमणं सुखम् । सदानन्दरसानुभवविप्लवः ॥ ३७२ ॥
संदृश्यते
जब उस मुनिका चित्त इन सब उपाधियोंसे निवृत्त हो जाता है तो उसको पूर्ण उपरतिका आनन्द स्पष्टतया प्रतीत होने लगता है जिससे उसके चित्तमें सच्चिदानन्दरसानुभवकी बाढ़ आने लगती है। वैराग्य - निरूपण
अन्तस्त्यागो बहिस्त्यागो विरक्तस्यैव युज्यते । त्यजत्यन्तर्बहिः सङ्गं विरक्तस्तु मुमुक्षया ॥ ३७३ ॥
विरक्त पुरुषका ही आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकारका त्याग करना ठीक है। वही मोक्षकी इच्छासे आन्तरिक और बाह्य संगको त्याग देता है। बहिस्तु विषयैः सङ्गं तथान्तरहमादिभिः । विरक्त एव शक्नोति त्यक्तुं ब्रह्मणि निष्ठितः ॥ ३७४ ॥
इन्द्रियोंका विषयोंके साथ बाह्य संग और अहंकारादिके साथ आन्तरिक संग-इन दोनोंका ब्रह्मनिष्ठ विरक्त पुरुष ही त्याग कर सकता है। पुरुषस्य पुरुषस्य पक्षिवत् पक्षौ विजानीहि विचक्षण त्वम् ।
वैराग्यबोधौ
विमुक्तिसौधाग्रतलाधिरोहणं
ताभ्यां विना नान्यतरेण सिध्यति ॥ ३७५ ॥