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समाधि-निरूपण
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निर्विकल्प-समाधिके द्वारा निश्चय ही ब्रह्मतत्त्वका स्पष्ट ज्ञान होता है, और किसी प्रकार वैसा बोध नहीं हो सकता; क्योंकि अन्य अवस्थाओंमें चित्तवृत्तिके चंचल रहनेसे उसमें अन्यान्य प्रतीतियोंका भी मेल रहता है। अतः समाधत्स्व यतेन्द्रियः सदा
निरन्तरं शान्तमनाः प्रतीचि। विध्वंसय ध्वान्तमनाद्यविद्यया ।
कृतं सदेकत्वविलोकनेन ।। ३६७॥ इसलिये सदा संयतेन्द्रिय होकर शान्त मनसे निरन्तर प्रत्यगात्मा ब्रह्ममें चित्त स्थिर करो और सच्चिदानन्द ब्रह्मके साथ अपना ऐक्य देखते हुए अनादि अविद्यासे उत्पन्न अज्ञानान्धकारका ध्वंस करो।
योगस्य प्रथमं द्वारं वानिरोधोऽपरिग्रहः। निराशा च निरीहा च नित्यमेकान्तशीलता॥३६८॥
वाणीको रोकना, द्रव्यका संग्रह न करना, लौकिक पदार्थोंकी आशा छोड़ना, कामनाओंका त्याग करना और नित्य एकान्तमें रहना-ये सब योगका पहला द्वार हैं। एकान्तस्थितिरिन्द्रियोपरमणे हेतुर्दमश्चेतसः संरोधे करणं शमेन विलयं यायादहंवासना। तेनानन्दरसानुभूतिरचला ब्राह्मी सदा योगिनस्तस्माच्चित्तनिरोध एव सततं कार्यः प्रयत्नान्मुनेः॥३६९॥
एकान्तमें रहना इन्द्रिय-दमनका कारण है, इन्द्रिय-दमन चित्तके निरोधका कारण है और चित्त-निरोधसे वासनाका नाश होता है तथा वासनाके नष्ट हो जानेसे योगीको ब्रह्मानन्दरसका अविचल अनुभव होता है; इसलिये मुनिको सदा प्रयत्नपूर्वक चित्तका निरोध ही करना चाहिये। वाचं नियच्छात्मनि तं नियच्छ
बुद्धौ धियं यच्छ च बुद्धिसाक्षिणि। तं चापि पूर्णात्मनि निर्विकल्पे
विलाप्य शान्तिं परमां भजस्व॥३७०॥