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विवेक-चूडामणि
प्रकार मन ध्यानके द्वारा सत्त्व-रज-तमरूप मलको त्यागकर आत्मतत्त्वको प्राप्त कर लेता है। निरन्तराभ्यासवशात्तदित्थं
पक्वं मनो ब्रह्मणि लीयते यदा। तदा समाधिः स विकल्पवर्जितः
स्वतोऽद्वयानन्दरसानुभावकः ॥३६३॥ जिस समय रात-दिनके निरन्तर अभ्याससे परिपक्व होकर मन ब्रह्ममें लीन हो जाता है, उस समय अद्वितीय ब्रह्मानन्दरसका अनुभव करानेवाली वह निर्विकल्प-समाधि स्वयं ही सिद्ध हो जाती है। समाधिनानेन समस्तवासना
ग्रन्थेविनाशोऽखिलकर्मनाशः । अन्तर्बहिः सर्वत एव सर्वदा
स्वरूपविस्फूर्तिरयत्नतः स्यात्॥३६४॥ इस निर्विकल्प-समाधिसे समस्त वासना-ग्रन्थियोंका नाश हो जाता है तथा वासनाओंके नाशसे सम्पूर्ण कर्मोंका भी नाश हो जाता है और फिर बाहरभीतर सर्वत्र बिना प्रयत्नके ही निरन्तर स्वरूपकी स्फूर्ति होने लगती है।
श्रुतेः शतगुणं विद्यान्मननं मननादपि। निदिध्यासं लक्षगुणमनन्तं निर्विकल्पकम्॥३६५॥
वेदान्तके श्रवणमात्रसे उसका मनन करना सौगुना अच्छा है और मननसे भी लाखगुना श्रेयस्कर निदिध्यासन (आत्मभावनाको अपने चित्तमें स्थिर करना) है तथा निदिध्यासनसे भी अनन्तगुना निर्विकल्प-समाधिका महत्त्व है [ जिससे चित्त फिर आत्मस्वरूपसे कभी चलायमान ही नहीं होता] । निर्विकल्पकसमाधिना स्फुटं
ब्रह्मतत्त्वमवगम्यते ध्रुवम्। नान्यथा चलतया मनोगते:
प्रत्ययान्तरविमिश्रितं भवेत्॥३६६॥
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