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वैराग्य-निरूपण
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हे विद्वन्! वैराग्य और बोध-इन दोनोंको पक्षीके दोनों पंखोंके समान मोक्षकामी पुरुषके पंख समझो। इन दोनों से किसी भी एकके बिना केवल एक ही पंखके द्वारा कोई मुक्तिरूपी महलकी अटारीपर नहीं चढ़ सकता [अर्थात् मोक्षप्राप्तिके लिये वैराग्य और बोध दोनोंकी ही आवश्यकता है] । अत्यन्तवैराग्यवतः समाधिः
समाहितस्यैव दृढप्रबोधः । प्रबुद्धतत्त्वस्य हि बन्धमुक्ति
मुक्तात्मनो नित्यसुखानुभूतिः ॥ ३७६ ॥ अत्यन्त वैराग्यवान्को ही समाधि-लाभ होता है, समाधिस्थ पुरुषको ही दृढ बोध होता है तथा सुदृढ बोधवान्का ही संसार-बन्धन छूटता है और जो संसार-बन्धनसे छूट गया है उसीको नित्यानन्दका अनुभव होता है।
वैराग्यान्न परं सुखस्य जनकं पश्यामि वश्यात्मनस्तच्चेच्छुद्धतरात्मबोधसहितं स्वाराज्यसाम्राज्यधुक्। एतद्वारमजनमुक्तियुवतेर्यस्मात्त्वमस्मात्परं सर्वत्रास्पृहया सदात्मनि सदा प्रज्ञां कुरु श्रेयसे॥३७७॥
जितेन्द्रिय पुरुषके लिये वैराग्यसे बढ़कर सुखदायक मुझे और कुछ भी प्रतीत नहीं होता और वह यदि कहीं शुद्ध आत्मज्ञानके सहित हो तब तो स्वर्गीय साम्राज्यके सुखका देनेवाला होता है। यह मुक्तिरूप कामिनीका निरन्तर खुला हुआ द्वार है; इसलिये हे वत्स! तुम अपने कल्याणके लिये सब ओरसे इच्छारहित होकर सदा सच्चिदानन्द ब्रह्ममें ही अपनी बुद्धि स्थिर करो।
आशां छिन्धि विषोपमेषु विषयेष्वेषैव मृत्योः सृतिस्त्यक्त्वा जातिकुलाश्रमेष्वभिमति मुञ्चातिदूरात्क्रियाः। देहादावसति त्यजात्मधिषणां प्रज्ञां कुरुष्वात्मनि त्वं द्रष्टास्यमलोऽसि नियपरं ब्रह्मासि यद्वस्तुतः ॥ ३७८ ॥
विषके समान विषम विषयोंकी आशाको छोड़ दो, क्योंकि यह [स्वरूपविस्मृतिरूप] मृत्युका मार्ग है तथा जाति, कुल और आश्रम आदिका