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विवेक-चूडामणि
अभिमान छोड़कर दूरसे ही कर्मोंको नमस्कार कर दो। देह आदि असत् पदार्थों में आत्मबुद्धिको छोड़ो और आत्मामें अहंबुद्धि करो, क्योंकि तुम तो वास्तवमें इन सबके द्रष्टा और मल तथा द्वैतसे रहित जो परब्रह्म है, वही हो।
ध्यान-विधि लक्ष्ये ब्रह्मणि मानसं दृढतरं संस्थाप्य बाह्येन्द्रियं स्वस्थाने विनिवेश्य निश्चलतनुश्चोपेक्ष्य देहस्थितिम्। ब्रह्मात्मैक्यमुपेत्य तन्मयतया चाखण्डवृत्त्यानिशं ब्रह्मानन्दरसं पिबात्मनि मुदा शून्यैः किमन्यैर्धमैः ॥ ३७९॥
चित्तको अपने लक्ष्य ब्रह्ममें दृढ़तापूर्वक स्थिरकर बाह्य इन्द्रियोंको [उनके विषयोंसे हटाकर] अपने-अपने गोलकोंमें स्थिर करो, शरीरको निश्चल रखो और उसकी स्थितिकी ओर ध्यान मत दो। इस प्रकार ब्रह्म और आत्माकी एकता करके तन्मयभावसे अखण्ड-वृत्तिसे अहर्निश मन-ही-मन आनन्दपूर्वक ब्रह्मानन्दरसका पान करो और थोथी बातोंसे क्या लेना है?
अनात्मचिन्तनं त्यक्त्वा कश्मलं दुःखकारणम्। चिन्तयात्मानमानन्दरूपं यन्मुक्तिकारणम्॥ ३८०॥
दुःखके कारण और मोहरूप अनात्म-चिन्तनको छोड़कर आनन्दस्वरूप आत्माका चिन्तन करो, जो साक्षात् मुक्तिका कारण है। एष स्वयंज्योतिरशेषसाक्षी
विज्ञानकोशे विलसत्यजत्रम्। लक्ष्यं विधायैनमसद्विलक्षण
मखण्डवृत्त्यात्मतयानुभावय ॥३८१॥ यह जो स्वयंप्रकाश सबका साक्षी निरन्तर विज्ञानमय कोशमें विराजमान है, समस्त अनित्य पदार्थोंसे पृथक् इस परमात्माको ही अपना लक्ष्य बनाकर इसीका [तैलधारावत्] अखण्ड-वृत्तिसे, आत्म-भावसे चिन्तन करो।