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आत्म-दृष्टि
एतमच्छिन्नया वृत्त्या प्रत्ययान्तरशून्यया। उल्लेखयन्विजानीयात्स्वस्वरूपतया स्फुटम्॥३८२॥
अन्य प्रतीतियोंसे रहित अखण्ड-वृत्तिसे इस एकहीका चिन्तन करते हुए योगी इसीको स्पष्टतया अपना स्वरूप जाने।
अत्रात्मत्वं दृढीकुर्वन्नहमादिषु सन्त्यजन्। उदासीनतया तेषु तिष्ठेद्घटपटादिवत्॥३८३॥
इस प्रकार इस परमात्मामें ही आत्मभावको दृढ़ करता हुआ और अहंकारादिमें आत्मबुद्धि छोड़ता हुआ उनकी ओरसे शरीरसे भिन्न घटपट आदि वस्तुओंके समान उदासीन हो जाय।
आत्म-दृष्टि विशुद्धमन्तःकरणं स्वरूपे
निवेश्य साक्षिण्यवबोधमात्रे। शनैः शनैर्निश्चलतामुपानयन्
पूर्णं स्वमेवानुविलोकयेत्ततः॥३८४॥ सबके साक्षी और ज्ञानस्वरूप आत्मामें अपने शुद्ध चित्तको लगाकर धीरेधीरे निश्चलता प्राप्त करता हुआ अन्तमें सर्वत्र अपनेहीको परिपूर्ण देखे। देहेन्द्रियप्राणमनोऽहमादिभिः
स्वाज्ञानक्लुप्तैरखिलैरुपाधिभिः । विमुक्तमात्मानमखण्डरूपं
पूर्ण महाकाशमिवावलोकयेत्॥ ३८५॥ अपने अज्ञानसे कल्पित देह, इन्द्रिय, प्राण, मन और अहंकार आदि समस्त उपाधियोंसे रहित अखण्ड आत्माको महाकाशकी भाँति सर्वत्र परिपूर्ण देखे। घटकलशकुशूलसूचिमुख्यै
गंगनमुपाधिशतैर्विमुक्तमेकम् । भवति न विविधं तथैव शुद्धं
परमहमादिविमुक्तमेकमेव ॥३८६॥