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विवेक-चूडामणि
सहनं
सर्वदुःखानामप्रतीकारपूर्वकम् । चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते ॥ २५ ॥ चिन्ता और शोकसे रहित होकर बिना कोई प्रतिकार किये सब प्रकारके कष्टोंका सहन करना 'तितिक्षा' कहलाती है।
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शास्त्रस्य गुरुवाक्यस्य सत्यबुद्ध्यवधारणम् । सा श्रद्धा कथिता सद्भिर्यया वस्तूपलभ्यते ॥ २६ ॥ शास्त्र और गुरुवाक्योंमें सत्यत्व बुद्धि करना- इसीको सज्जनोंने श्रद्धा' कहा है, जिससे कि वस्तुकी प्राप्ति होती है। सर्वदा स्थापनं बुद्धेः शुद्धे ब्रह्मणि सर्वथा । तत्समाधानमित्युक्तं न तु चित्तस्य लालनम् ॥ २७ ॥
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अपनी बुद्धिको सब प्रकार शुद्ध ब्रह्ममें ही सदा स्थिर रखना इसीको 'समाधान' कहा है। चित्तकी इच्छापूर्तिका नाम समाधान नहीं है।
अहंकारादिदेहान्तान्बन्धानज्ञानकल्पितान्
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स्वस्वरूपावबोधेन
मुमुक्षुता ॥ २८ ॥ अहंकारसे लेकर देहपर्यन्त जितने अज्ञान-कल्पित बन्धन हैं, उनको अपने स्वरूपके ज्ञानद्वारा त्यागनेकी इच्छा 'मुमुक्षुता' है। वैराग्येण शमादिना ।
मन्दमध्यमरूपापि प्रसादेन गुरोः सेयं प्रवृद्धा सूयते फलम् ॥ २९ ॥
वह मुमुक्षुता मन्द और मध्यम भी हो तो भी वैराग्य तथा शमादि षट्सम्पत्ति और गुरुकृपासे बढ़कर फल उत्पन्न करती है।
वैराग्यं च मुमुक्षुत्वं तीव्रं यस्य तु विद्यते । तस्मिन्नेवार्थवन्तः स्युः फलवन्तः शमादयः ॥ ३० ॥ जिस पुरुषमें वैराग्य और मुमुक्षुत्व तीव्र होते हैं, उसीमें शमादि चरितार्थ और सफल होते हैं।
यत्र
एतयोर्मन्दता मरौ सलिलवत्तत्र
जहाँ इन वैराग्य और मुमुक्षुत्वकी मन्दता है, वहाँ शमादिका भी मरुस्थलमें जल-प्रतीतिके समान आभासमात्र ही समझना चाहिये ।
मोक्तुमिच्छा मोक्तुमिच्छा
विरक्तत्वमुमुक्षयोः । शमादेर्भासमात्रता ॥ ३१ ॥