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साधन-चतुष्टय
यहाँ मनस्वियोंने जिज्ञासाके चार साधन बताये हैं, उनके होनेसे ही सत्यस्वरूप आत्मामें स्थिति हो सकती है, उनके बिना नहीं।
आदौ नित्यानित्यवस्तुविवेकः परिगण्यते। इहामुत्रफलभोगविरागस्तदनन्तरम्
॥१९॥ शमादिषट्कसम्पत्तिर्मुमुक्षुत्वमिति स्फुटम्।
पहला साधन नित्यानित्य-वस्तु-विवेक गिना जाता है, दूसरा लौकिक एवं पारलौकिक सुख-भोगमें वैराग्य होना है, तीसरा शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान-ये छ: सम्पत्तियाँ हैं और चौथा मुमुक्षुता है। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्येत्येवंरूपो विनिश्चयः॥२०॥ सोऽयं नित्यानित्यवस्तुविवेकः समुदाहृतः।
'ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है' ऐसा जो निश्चय है यही 'नित्यानित्यवस्तु-विवेक' कहलाता है।
तद्वैराग्यं जुगुप्सा या दर्शनश्रवणादिभिः ।। २१॥ देहादिब्रह्मपर्यन्ते ह्यनित्ये भोगवस्तुनि।
दर्शन और श्रवणादिके द्वारा देहसे लेकर ब्रह्मलोकपर्यन्त सम्पूर्ण अनित्य भोग्य पदार्थोंमें जो घृणाबुद्धि है वही 'वैराग्य' है। विरज्य विषयवाताद्दोषदृष्ट्या मुहुर्मुहुः ॥२२॥ स्वलक्ष्ये नियतावस्था मनसः शम उच्यते।
बारम्बार दोष-दृष्टि करनेसे विषय-समूहसे विरक्त होकर चित्तका अपने लक्ष्यमें स्थिर हो जाना ही 'शम' है। . विषयेभ्यः परावर्त्य स्थापनं स्वस्वगोलके ॥२३॥ उभयेषामिन्द्रियाणां स दमः परिकीर्तितः। बाह्यानालम्बनं
वृत्तेरेषोपरतिरुत्तमा॥२४॥ कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनोंको उनके विषयोंसे खींचकर अपनेअपने गोलकोंमें स्थित करना 'दम' कहलाता है। वृत्तिका बाह्य विषयोंका आश्रय न लेना यही उत्तम 'उपरति' है।