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गुरूपसत्ति और प्रश्नविधि
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मोक्षकारणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी। स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधीयते॥३२॥ स्वात्मतत्त्वानुसन्धानं भक्तिरित्यपरे जगुः ।
मुक्तिकी कारणरूप सामग्रीमें भक्ति ही सबसे बढ़कर है और अपने वास्तविक स्वरूपका अनुसन्धान करना ही 'भक्ति' कहलाता है। कोईकोई 'स्वात्म-तत्त्वका अनुसन्धान ही भक्ति है'-ऐसा कहते हैं।
गुरूपसत्ति और प्रश्नविधि उक्तसाधनसम्पन्नस्तत्त्वजिज्ञासुरात्मनः ॥३३॥ उपसीदेद्गुरुं प्राज्ञं यस्माद्बन्धविमोक्षणम्।
उक्त साधन-चतुष्टयसे सम्पन्न आत्मतत्त्वका जिज्ञासु प्राज्ञ (स्थितप्रज्ञ) गुरुके निकट जाय, जिससे उसके भव-बन्धकी निवृत्ति हो।
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतो यो ब्रह्मवित्तमः॥३४॥ ब्रह्मण्युपरतः शान्तो निरिन्धन इवानलः। अहैतुकदयासिन्धुर्बन्धुरानमतां सताम्॥३५॥ तमाराध्य गुरुं भक्त्या प्रहप्रश्रयसेवनैः। प्रसन्नं तमनुप्राप्य पृच्छेज्ज्ञातव्यमात्मनः॥३६॥
जो श्रोत्रिय हों, निष्पाप हों, कामनाओंसे शून्य हों, ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हों, ब्रह्मनिष्ठ हों, ईंधनरहित अग्निके समान शान्त हों, अकारण दयासिन्धु हों और प्रणत (शरणापन्न) सज्जनोंके बन्धु (हितैषी) हों उन गुरुदेवकी विनीत और विनम्र सेवासे भक्तिपूर्वक आराधना करके, उनके प्रसन्न होनेपर निकट जाकर अपना ज्ञातव्य इस प्रकार पूछेस्वामिन्नमस्ते नतलोकबन्धो
कारुण्यसिन्धो पतितं भवाब्धौ। मामुद्धरात्मीयकटाक्षदृष्ट्या
ऋज्व्यातिकारुण्यसुधाभिवृष्ट्या ॥३७॥