________________
१४
विवेक-चूडामणि
हे शरणागतवत्सल, करुणासागर, प्रभो! आपको नमस्कार है। संसारसागरमें पड़े हुए मेरा आप अपनी सरल तथा अतिशय कारुण्यामृतवर्षिणी कृपाकटाक्षसे उद्धार कीजिये। दुरसंसारदवाग्नितप्तं
दोधूयमानं दुरदृष्टवातैः। भीतं प्रपन्नं परिपाहि मृत्योः
शरण्यमन्यं यदहं न जाने॥ ३८॥ जिससे छुटकारा पाना अति कठिन है उस संसार-दावानलसे दग्ध तथा दुर्भाग्यरूपी प्रबल प्रभंजन (आँधी)-से अत्यन्त कम्पित और भयभीत हुए मुझ शरणागतकी आप मृत्युसे रक्षा कीजिये; क्योंकि इस समय मैं और किसी शरण देनेवालेको नहीं जानता। शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो
वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः। तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जना
नहेतुनान्यानपि तारयन्तः ॥३९॥ भयंकर संसार-सागरसे स्वयं उत्तीर्ण हुए और अन्य जनोंको भी बिना कारण ही तारते तथा लोकहितका आचरण करते अति शान्त महापुरुष ऋतुराज वसन्तके समान निवास करते हैं। अयं स्वभावः स्वत एव यत्पर
श्रमापनोदप्रवणं महात्मनाम्। सुधांशुरेष स्वयमर्ककर्कश
प्रभाभितप्तामवति क्षितिं किल॥४०॥ महात्माओंका यह स्वभाव ही है कि वे स्वतः ही दूसरोंका श्रम दूर