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उपदेश-विधि
करनेमें प्रवृत्त होते हैं। सूर्यके प्रचण्ड तेजसे सन्तप्त पृथ्वीतलको चन्द्रदेव स्वयं ही शान्त कर देते हैं।
ब्रह्मानन्दरसानुभूतिकलितैः पूतैः सुशीतैः सितैर्युष्मद्वाक्कलशोज्झितैः श्रुतिसुखैर्वाक्यामृतैः सेचय । संतप्तं भवतापदावदहनज्वालाभिरेनं प्रभो धन्यास्ते भवदीक्षणक्षणगतेः पात्रीकृताः स्वीकृताः ॥ ४१ ॥ हे प्रभो ! प्रचण्ड संसार- दावानलकी ज्वालासे तपे हुए इस दीनशरणापन्नको आप अपने ब्रह्मानन्दरसानुभवसे युक्त परम पुनीत, सुशीतल, निर्मल और वाक्-रूपी स्वर्णकलशसे निकले हुए श्रवणसुखद वचनामृतों से सींचिये [ अर्थात् इसके तापको शान्त कीजिये ]। वे धन्य हैं, जो आपके एक क्षणके करुणामय दृष्टिपथके पात्र होकर अपना लिये गये हैं। तरेयं भवसिन्धुमेतं
कथं
का वा गतिमें कतमोऽस्त्युपायः ।
जाने न किञ्चित्कृपयाव मां भो
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संसारदुःखक्षतिमातनुष्व
॥ ४२ ॥
'मैं इस संसार - समुद्रको कैसे तरूँगा ? मेरी क्या गति होगी ? उसका क्या उपाय है ? ' - यह मैं कुछ नहीं जानता। प्रभो! कृपया मेरी रक्षा कीजिये और मेरे संसार दुःखके क्षयका आयोजन कीजिये।
उपदेश - विधि
तथा
वदन्तं शरणागतं शरणागतं स्वं संसारदावानलतापतप्तम् कारुण्यरसार्द्रदृष्ट्या
निरीक्ष्य
दद्यादभीतिं
सहसा
महात्मा ॥ ४३ ॥
इस प्रकार कहते हुए, अपनी शरणमें आये संसारानल-सन्तप्त शिष्यको महात्मा गुरु करुणामयी दृष्टिसे देखकर सहसा अभय प्रदान करे।