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असत् - परिहार
जीवतो यस्य कैवल्यं विदेहे स च केवलः । यत्किञ्चित्पश्यतो भेदं भयं ब्रूते यजुः श्रुतिः ॥ ३३० ॥
जिसने जीते हुए ही कैवल्यपद प्राप्त कर लिया है उसीकी देहपातके अनन्तर कैवल्यमुक्ति होती है, क्योंकि जो थोड़ा-सा भी भेद देखता है उसके लिये यजुर्वेदकी श्रुति भय बताती है। यदा कदा वापि विपश्चिदेष ब्रह्मण्यनन्तेऽप्यणुमात्रभेदम् भयं तदैव
पश्यत्यथामुष्य
यद्वीक्षितं भिन्नतया प्रमादात् ॥ ३३१ ॥
जब कभी यह विद्वान् अनन्त ब्रह्ममें अणुमात्र भी भेद-दृष्टि करता है तभी इसको भयकी प्राप्ति होती है, क्योंकि स्वरूपके प्रमादसे ही अखण्ड आत्मामें भेदकी प्रतीति हुई है। श्रुतिस्मृतिन्यायशतैर्निषिद्धे
दृश्येऽत्र यः स्वात्ममतिं करोति । उपैति दुःखोपरि दुःखजातं
निषिद्धकर्ता स मलिम्लुचो यथा ॥ ३३२ ॥
श्रुति, स्मृति और सैकड़ों युक्तियोंसे निषिद्ध हुए इस दृश्य ( देहादि ) - में जो आत्मबुद्धि करता है, वह निषिद्ध कर्म करनेवाले चोरके समान
दुःख-पर- दुःख भोगता है।
सत्याभिसन्धानरतो
विमुक्तो
नित्यम् ।
मिथ्याभिसन्धानरतस्तु दृष्टं
नश्येद् तदेतद्यदचोरचोरयोः ॥ ३३३ ॥
जो अद्वितीय ब्रह्मरूप सत्य पदार्थकी खोज करता है वही मुक्त होकर अपने
महत्त्वमात्मीयमुपैति