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असत्-परिहार
नित्य महत्त्वको प्राप्त करता है और जो मिथ्या दृश्य पदार्थों के पीछे पड़ा रहता है वह नष्ट हो जाता है; ऐसा ही साधु और चोरके विषयमें * देखा भी गया है। यतिरसदनुसन्धिं बन्धहेतुं विहाय
स्वयमयमहमस्मीत्यात्मदृष्ट्यैव तिष्ठेत्। सुखयति ननु निष्ठा ब्रह्मणि स्वानुभूत्या
हरति परमविद्याकार्यदुःखं प्रतीतम्॥३३४॥ यतिको चाहिये कि असत्-पदार्थोंका पीछा छोड़कर 'यह साक्षात् ब्रह्म ही मैं हूँ' ऐसी आत्मदृष्टिमें ही स्थिर होकर रहे। अपने अनुभवसे उत्पन्न हुई ब्रह्मनिष्ठा ही अविद्याके कार्यभूत इस प्रतीयमान प्रपंचके दुःखको दूर करके परम सुख देती है। बाह्यानुसन्धिः परिवर्धयेत्फलं
दुर्वासनामेव ततस्ततोऽधिकाम्। ज्ञात्वा विवेकैः परिहृत्य बाह्य
स्वात्मानुसन्धिं विदधीत नित्यम्॥३३५॥ बाह्य विषयोंका चिन्तन अपने दुर्वासनारूप फलको ही उत्तरोत्तर बढ़ाता है, इसलिये विवेकपूर्वक आत्मस्वरूपको जानकर बाह्य विषयोंको छोड़ता हुआ नित्य आत्मानुसन्धान ही करता रहे। बाह्ये निरुद्धे मनसः प्रसन्नता
मनःप्रसादे परमात्मदर्शनम्। तस्मिन्सुदृष्टे भवबन्धनाशो
बहिर्निरोधः पदवी विमुक्तेः ॥ ३३६ ॥
* इस प्रसंगका छान्दोग्योपनिषद् (६ । १६ । १-२)-में इस प्रकार वर्णन किया है कि जिस व्यक्तिपर चोरी करनेका सन्देह होता है उसे राजपुरुष तपाया हुआ परशु देते हैं। यदि उसने चोरी की होती है और वह 'मैंने चोरी नहीं की' ऐसा कहकर मिथ्या भाषण करता है तो उससे दग्ध हो जाता है और तब राजपुरुष भी उसे मार डालते हैं; और यदि वह वास्तवमें चोर नहीं होता तो सत्यसे सुरक्षित रहनेके कारण वह उस परशुसे दग्ध नहीं होता और उसे राजपुरुष भी छोड़ देते हैं।