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क्रिया, चिन्ता और वासनाका त्याग
क्रिया, चिन्ता और वासनाका त्याग निगृह्य शत्रोरहमोऽवकाशः
क्वचिन्न देयो विषयानुचिन्त्या। स एव संजीवनहेतुरस्य
प्रक्षीणजम्बीरतरोरिवाम्बु ॥३११॥ इस अहंकाररूप शत्रुका निग्रह कर लेनेपर फिर विषयचिन्तनके द्वारा इसे सिर उठानेका अवसर कभी न देना चाहिये, क्योंकि नष्ट हुए जम्बीरके वृक्षके लिये जलके समान इसके पुनरुज्जीवन (फिर जी उठने)का कारण यह विषय-चिन्तन ही है। देहात्मना संस्थित एव कामी
विलक्षण: कामयिता कथं स्यात्। अतोऽर्थसन्धानपरत्वमेव
भेदप्रसक्त्या भवबन्धहेतुः॥३१२॥ जो पुरुष देहात्म-बुद्धिसे स्थित है, वही कामनावाला होता है। जिसका देहसे सम्बन्ध नहीं है, वह विलक्षण आत्मा कैसे सकाम हो सकता है? इसलिये भेदासक्तिका कारण होनेसे विषय-चिन्तनमें लगा रहना ही संसार-बन्धनका मुख्य कारण है।
कार्यप्रवर्धनाद्वीजप्रवृद्धिः परिदृश्यते। कार्यनाशाद्वीजनाशस्तस्मात्कार्यं निरोधयेत्॥३१३॥
कार्यके बढ़नेसे उसके बीजकी वृद्धि होती भी देखी जाती है और कार्यका नाश हो जानेसे बीज भी नष्ट हो जाता है; इसलिये कार्यका ही नाश कर देना चाहिये।
वासनावृद्धितः कार्यं कार्यवृद्ध्या च वासना। वर्धते सर्वथा पुंसः संसारो न निवर्तते॥३१४॥
वासनाके बढ़नेसे कार्य बढ़ता है और कार्यके बढ़नेसे वासना बढ़ती है। इस प्रकार मनुष्यका संसार-बन्धन बिलकुल नहीं छूटता।