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विवेक-चूडामणि
इस अहंकाररूप अध्यासके बिना तुझ सर्वदा एकरूप, चिदात्मा, व्यापक, आनन्दस्वरूप, पवित्रकीर्ति और अविकारी आत्माको और किसी प्रकार संसार-बन्धनकी प्राप्ति नहीं हो सकती। तस्मादहङ्कारमिमं स्वशत्रु
भोक्तुर्गले कण्टकवत्प्रतीतम्। विच्छिद्य विज्ञानमहासिना स्फुटं
भुक्ष्वात्मसाम्राज्यसुखं यथेष्टम्॥३०८॥ इसलिये हे विद्वन् ! भोजन करनेवाले पुरुषके गलेमें काँटेके समान खटकनेवाले इस अहंकाररूप अपने शत्रुको विज्ञानरूप महाखड्गसे भली प्रकार छेदन कर आत्म-साम्राज्य-सुखका यथेष्ट भोग करो। ततोऽहमादेर्विनिवर्त्य वृत्तिं
सन्त्यक्तरागः परमार्थलाभात्। तूष्णीं समास्स्वात्मसुखानुभूत्या
पूर्णात्मना ब्रह्मणि निर्विकल्पः॥३०९॥ फिर अहंकार आदिकी कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि वृत्तियोंको हटाकर परमार्थ-तत्त्वकी प्राप्तिसे रागरहित होकर आत्मानन्दके अनुभवसे ब्रह्मभावमें पूर्णतया स्थित होकर निर्विकल्प और मौन हो जाओ। समूलकृत्तोऽपि महानहं पुन
युल्लेखितः स्याद्यदि चेतसा क्षणम्। सञ्जीव्य विक्षेपशतं करोति
नभस्वता प्रावृषि वारिदो यथा॥ ३१०॥ यह प्रबल अहंकार जड़-मूलसे नष्ट कर दिया जानेपर भी यदि एक क्षणमात्रको चित्तका सम्पर्क प्राप्त कर ले तो पुनः प्रकट होकर सैकड़ों उत्पात खड़े कर देता है; जैसे कि वर्षाकालमें वायुसे संयुक्त हुआ मेघ।