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अहंकार-निन्दा
काटकर इस सर्पका नाश कर देता है, तभी वह इस परम आनन्ददायिनी सम्पत्तिको भोग सकता है। यावद्वा यत्किञ्चिद्विषदोषस्फूर्तिरस्ति चेहेहे। कथमारोग्याय भवेत्तद्वदहन्तापि योगिनो मुक्त्यै॥ ३०४॥
जबतक देहमें विषका थोड़ा-सा भी दोष रहता है, तबतक वह उसे नीरोग कैसे रहने देगा? उसी प्रकार योगीकी मुक्तिके मार्गमें अहंकारका यत्किंचित् लेश भी भारी प्रतिबन्धक होता है।
अहमोऽत्यन्तनिवृत्त्या तत्कृतनानाविकल्पसंहृत्या। प्रत्यक्तत्त्वविवेकादयमहमस्मीति विन्दते तत्त्वम्॥३०५॥
अहंकारकी नि:शेष निवृत्तिसे उससे उत्पन्न हुए नाना प्रकारके विकल्पोंका नाश हो जानेपर आत्मतत्त्वका विवेक हो जानेसे 'यह आत्मा ही मैं हूँ' ऐसा तत्त्व-बोध प्राप्त होता है।
अहंकर्तर्यस्मिन्नहमिति मतिं मुंच सहसा विकारात्मन्यात्मप्रतिफलजुषि स्वस्थितिमुषि। यदध्यासात्प्राप्ता जनिमृतिजरादुःखबहुला प्रतीचश्चिन्मूर्तेस्तव सुखतनोः संसृतिरियम्॥३०६॥
इस विकारात्मक, आत्मप्रतिविम्बयुक्त और स्वरूपको छिपानेवाले अहंकारमें अहंबुद्धिको शीघ्र ही त्याग दे। इसके अध्याससे ही तुझ 'चैतन्यमूर्ति, आनन्दस्वरूप प्रत्यगात्माको जन्म, मरण, बुढ़ापा आदि नाना प्रकारके दुःखोंसे पूर्ण यह संसार-बन्धन प्राप्त हुआ है। सदैकरूपस्य चिदात्मनो विभो
रानन्दमूर्तेरनवद्यकीर्तेः । नैवान्यथा क्वाप्यविकारिणस्ते
विनाहमध्यासममुष्य संसृतिः॥३०७॥