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विवेक-चूडामणि
पुरुषको इस संसार-बन्धनकी प्राप्तिके कारणरूप और भी अनेक प्रतिबन्ध हैं; किन्तु उन सबका मूल प्रथम विकार अहंकार ही है, [क्योंकि अन्य समस्त अनात्मभावोंका प्रादुर्भाव इसीसे होता है ।
यावत्स्यात्स्वस्य सम्बन्धोऽहङ्कारेण दुरात्मना। तावन्न लेशमात्रापि मुक्तिवार्ता विलक्षणा॥ ३००॥
जबतक इस दुरात्मा अहंकारसे आत्माका सम्बन्ध है, तबतक मुक्तिजैसी विलक्षण बातकी लेशमात्र भी आशा न रखनी चाहिये।
अहङ्कारग्रहान्मुक्तः स्वरूपमुपपद्यते। चन्द्रवद्विमल: पूर्णः सदानन्दः स्वयंप्रभः ।। ३०१॥
अहंकाररूपी ग्रह (राहु)-से मुक्त हो जानेपर चन्द्रमाके समान आत्मा निर्मल, पूर्ण एवं नित्यानन्दस्वरूप स्वयंप्रकाश होकर अपने स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। यो वा पुरे सोऽहमिति प्रतीतो
बुद्ध्या विक्लृप्तस्तमसातिमूढया। तस्यैव निःशेषतया विनाशे
ब्रह्मात्मभावः प्रतिबन्धशून्यः॥३०२॥ अज्ञानसे अत्यन्त मोहित बुद्धिकी कल्पनासे इस शरीरमें ही जो 'यही मैं हूँ'-ऐसी प्रतीति हो रही है, उसका सर्वथा नाश हो जानेपर ब्रह्ममें निर्बाध आत्मभाव हो जाता है।
ब्रह्मानन्दनिधिर्महाबलवताहङ्कारघोराहिना संवेष्ट्यात्मनि रक्ष्यते गुणमयैश्चण्डैस्त्रिभिर्मस्तकैः । विज्ञानाख्यमहासिना द्युतिमता विच्छिद्य शीर्षत्रयं निर्मूल्याहिमिमं निधिं सुखकरं धीरोऽनुभोक्तुं क्षमः ॥३०३॥
ब्रह्मानन्दरूपी परमधनको अहंकाररूप महाभयंकर सर्पने अपने सत्त्व, रज, तमरूप तीन प्रचण्ड मस्तकोंसे लपेटकर छिपा रखा है; जब विवेकी पुरुष अनुभव-ज्ञानरूप चमचमाते हुए महान् खड्गसे इन तीनों मस्तकोंको