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अहंकार-नन्दा
विकारिणां सर्वविकारवेत्ता
नित्योऽविकारो भवितुं समर्हति। मनोरथस्वप्नसुषुप्तिषु स्फुटं
पुनः पुनदृष्टमसत्त्वमेतयोः॥२९६॥ अहंकार आदि विकारी वस्तुओंके समस्त विकारोंको जाननेवाला नित्य तथा अविकारी ही होना चाहिये। मनोरथ, स्वप्न और सुषुप्तिकालमें इन स्थूल-सूक्ष्म दोनों शरीरोंका अभाव बार-बार स्पष्ट देखा गया है [ अत: ये 'अहंपदार्थ आत्मा' कैसे हो सकते हैं? ] अतोऽभिमानं त्यज मांसपिण्डे
पिण्डाभिमानिन्यपि बुद्धिकल्पिते। कालत्रयाबाध्यमखण्डबोधं
ज्ञात्वा स्वमात्मानमुपैहि शान्तिम् ।। २९७॥ इसलिये इस मांस-पिण्ड और इसके बुद्धि-कल्पित अभिमानी जीवमें अहंबुद्धि छोड़ो और अपने आत्माको तीनों कालोंमें अबाधित और अखण्ड ज्ञानस्वरूप जानकर शान्ति-लाभ करो। त्यजाभिमानं कुलगोत्रनाम
रूपाश्रमेष्वार्द्रशवाश्रितेषु लिंङ्गस्य धर्मानपि कर्तृतादी
स्त्यक्त्वा भवाखण्डसुखस्वरूपः॥ २९८॥ इस लिबलिबे मांस-पिण्डके आश्रित रहनेवाले कुल, गोत्र, नाम, रूप और आश्रमका अभिमान छोड़ो तथा कर्तापन, भोक्तापन आदि लिंगदेहके धर्मोंको भी त्यागकर अखण्ड आनन्दस्वरूप हो जाओ।
अहंकार-निन्दा सन्त्यन्ये प्रतिबन्धाः पुंसः संसारहेतवो दृष्टाः। तेषामेकं मूलं प्रथमविकारो भवत्यहङ्कारः॥२९९ ॥