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विवेक-चूडामणि
संसारबन्धविच्छित्त्यै तद्वयं प्रदहेद्यतिः। वासनावृद्धिरेताभ्यां चिन्तया क्रियया बहिः॥३१५॥
इसलिये संसार-बन्धनको काटनेके लिये मुनि इन दोनोंका नाश करे। विषयोंकी चिन्ता और बाह्य-क्रिया-इनसे ही वासनाकी वृद्धि होती है। ताभ्यां प्रवर्धमाना सा सूते संसृतिमात्मनः । त्रयाणां च क्षयोपायः सर्वावस्थासु सर्वदा ।। ३१६॥ सर्वत्र सर्वतः सर्वं ब्रह्ममात्रावलोकनम्। सद्भाववासनादाात्तत्रयं लयमश्नुते॥३१७॥
और इन दोनोंसे ही बढ़कर वह वासना आत्माके लिये संसाररूप बन्धन उत्पन्न करती है। इन तीनोंके क्षयका उपाय सब अवस्थाओंमें सदा सब जगह सब ओर सबको ब्रह्ममात्र देखना ही है। इस ब्रह्ममय वासनाके दृढ़ हो जानेपर इन तीनोंका लय हो जाता है। क्रियानाशे भवेच्चिन्तानाशोऽस्माद्वासनाक्षयः। वासनाप्रक्षयो मोक्षः सा जीवन्मुक्तिरिष्यते॥ ३१८॥
क्रियाके नष्ट हो जानेसे चिन्ताका नाश होता है और चिन्ताके नाशसे वासनाओंका क्षय होता है; इस वासनाक्षयका नाम ही मोक्ष है और यही जीवन्मुक्ति कहलाती है। सद्वासनास्फूर्तिविजृम्भणे सति
ह्यसौ विलीना त्वहमादिवासना। अतिप्रकृष्टाप्यरुणप्रभायां
विलीयते साधु यथा तमिस्रा॥३१९॥ सूर्यकी प्रभाके उदय होते ही जैसे अत्यन्त घोर अँधेरी रातका भी सर्वथा नाश हो जाता है उसी प्रकार ब्रह्म-वासनाकी स्फूर्तिका विस्तार होनेपर यह अहंकारादिकी वासनाएँ लीन हो जाती हैं।