________________
अध्यास-निरास
७७
अनात्मवासनाओंके समूहसे आत्मवासना छिप गयी है; इसलिये निरन्तर आत्मनिष्ठामें स्थित रहनेसे उनका नाश हो जानेपर वह स्पष्ट भासने लगती है। यथा यथा प्रत्यगवस्थितं मन
स्तथा तथा मुञ्चति बाह्यवासनाः। निःशेषमोक्षे सति वासनाना
मात्मानुभूतिः प्रतिबन्धशून्या॥२७७॥ मन जैसे-जैसे अन्तर्मुख होता जाता है, वैसे-वैसे ही वह बाह्य वासनाओंको छोड़ता जाता है। जिस समय वासनाओंसे पूर्णतया छुटकारा हो जाता है, उस समय आत्माका प्रतिबन्धशून्य अनुभव होने लगता है।
अध्यास-निरास स्वात्मन्येव सदा स्थित्या मनो नश्यति योगिनः। वासनानां क्षयश्चातः स्वाध्यासापनयं कुरु॥२७८ ।।
[ चित्तवृत्तियोंको रोककर ] निरन्तर आत्मस्वरूपमें ही स्थिर रहनेसे योगीका मन नष्ट हो जाता है और उसकी वासनाओंका भी क्षय हो जाता है इसलिये अपने अध्यासको दूर करो।
तमो द्वाभ्यां रजः सत्त्वात्सत्त्वं शुद्धेन नश्यति। तस्मात्सत्त्वमवष्टभ्य स्वाध्यासापनयं कुरु॥२७९॥
रजोगुण और सत्त्वगुणसे तम, सत्त्वगुणसे रज और शुद्ध सत्त्वसे सत्त्वगुणका नाश होता है, इसलिये शुद्ध सत्त्वका आश्रय लेकर अपने अध्यासका त्याग करो। प्रारब्धं पुष्यति वपुरिति निश्चित्य निश्चलः। धैर्यमालम्ब्य यत्नेन स्वाध्यासापनयं कुरु ॥२८॥
प्रारब्ध ही शरीरका पोषण करता है, ऐसा निश्चय कर निश्चलभावसे धैर्य धारण करके यत्नपूर्वक अपने अध्यासको छोड़ो।