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विवेक-चूडामणि
लोकवासना, शास्त्रवासना और देहवासना-इन तीनोंके कारण ही
जीवको ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता।
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संसारकारागृहमोक्षमिच्छोरयोमयं
तज्ज्ञा:
पादनिबद्धशृङ्खलम् । पटुवासनात्रयं
योऽस्माद्विमुक्तः समुपैति मुक्तिम् ॥ २७३ ॥
वदन्ति
संसाररूप कारागारसे मुक्त होनेकी इच्छावाले पुरुषके लिये, ब्रह्मज्ञ पुरुष इस प्रबल वासनात्रयको पैरोंमें पड़ी हुई लोहेकी बेड़ी बतलाते हैं। जो इससे छुटकारा पा जाता हैं वही मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
जलादिसम्पर्कवशात्प्रभूत
सङ्घर्षणेनैव
दुर्गन्धधूतागरुदिव्यवासना विभाति सम्य
ग्विधूयमाने सति बाह्यगन्धे ॥ २७४ ॥
अन्तःश्रितानन्तदुरन्तवासना
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धूलीविलिप्ता परमात्मवासना । विशुद्धा
प्रज्ञातिसङ्घर्षणतो प्रतीयते
चन्दनगन्धवत्स्फुटा ।। २७५ ।।
जिस प्रकार जल आदिके संसर्गवश [ किसी अन्य ] अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त वस्तुका लेप चढ़ जानेसे दबी हुई अगरुकी दिव्य सुगन्ध संघर्षण (घिसने) के द्वारा ही बाह्य दुर्गन्धके दूर होनेपर फिर अच्छी तरह प्रतीत होती है; उसी प्रकार अन्तःकरणमें स्थित अनन्त दुर्वासनारूपी धूलिसे ढकी हुई परमात्मवासना बुद्धिके अत्यन्त संघर्षसे शुद्ध होकर चन्दनकी गन्धके समान ही स्पष्ट प्रतीत होने लगती है।
अनात्मवासनाजालैस्तिरोभूतात्मवासना
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नित्यात्मनिष्ठया तेषां नाशे भाति स्वयं स्फुटा ॥ २७६ ॥