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वासना-त्याग
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वासना-त्याग ज्ञाते वस्तुन्यपि बलवती वासनानादिरेषा कर्ता भोक्ताप्यहमिति दृढा यास्य संसारहेतुः। प्रत्यग्दृष्ट्यात्मनि निवसता सापनेया प्रयत्नान् मुक्तिं प्राहुस्तदिह मुनयो वासनातानवं यत्॥२६८॥
आत्म-वस्तुका ज्ञान हो जानेपर भी, जो 'मैं कर्ता और भोक्ता हूँ' इस रूपसे दृढ़ होकर [ जन्म-मरणरूप ] संसारका कारण होती है, उस प्रबल अनादि-वासनाको प्रत्यक् (आन्तरिक) दृष्टिसे आत्मस्वरूपमें स्थित होकर प्रयत्नपूर्वक दूर करना चाहिये; क्योंकि इस संसारमें वासनाकी क्षीणताको ही मुनियोंने मुक्ति कहा है।
अहंममेति यो भावो देहाक्षादावनात्मनि। अध्यासोऽयं निरस्तव्यो विदुषा स्वात्मनिष्ठया॥२६९॥
देह-इन्द्रिय आदि अनात्म-वस्तुओंमें जीवका जो अहं अथवा ममभाव है यही अध्यास है। विद्वान्को आत्मनिष्ठाद्वारा इसे दूर कर देना चाहिये।
ज्ञात्वा स्वं प्रत्यगात्मानं बुद्धितवृत्तिसाक्षिणम्। सोऽहमित्येव सद्वृत्त्यानात्मन्यात्ममतिं जहि॥२७०॥
प्रत्यगात्मरूप अपने-आपको बुद्धि और उसकी वृत्तियोंका साक्षी जानकर 'मैं वही हूँ' ऐसी समीचीन वृत्तिसे अनात्म-वस्तुओंमें फैली हुई आत्मबुद्धिका त्याग करो। लोकानुवर्तनं त्यक्त्वा त्यक्त्वा देहानुवर्तनम्। शास्त्रानुवर्तनं त्यक्त्वा स्वाध्यासापनयं कुरु॥२७१ ।।
लोकवासना, देहवासना और शास्त्रवासना-इन तीनोंको छोड़कर आत्मामें हुए संसारके अध्यासका त्याग करो। लोकवासनया जन्तोः शास्त्रवासनयापि च। देहवासनया ज्ञानं यथावन्नैव जायते॥२७२।।