________________
७८
विवेक-चूडामणि
नाहं जीवः परं ब्रह्मेत्यतद्व्यावृत्तिपूर्वकम्। वासनावेगतः प्राप्तस्वाध्यासापनयं कुरु ॥ २८१॥
मैं जीव नहीं हूँ, परब्रह्म हूँ , इस प्रकार अपनेमें जीवभावका निषेध करते हुए, वासनात्रयके वेगसे प्राप्त हुए जीवत्वके अध्यासका त्याग करो।
श्रुत्या युक्त्या स्वानुभूत्या ज्ञात्वा सार्वात्म्यमात्मनः । क्वचिदाभासतः प्राप्तस्वाध्यासापनयं कुरु॥२८२।।
श्रुति, युक्ति और अपने अनुभवसे आत्माकी सर्वात्मताको जानकर कभी भ्रमसे प्राप्त हुए अपने अध्यासका त्याग करो।
अनादानविसर्गाभ्यामीषन्नास्ति क्रिया मुनेः । तदेकनिष्ठया नित्यं स्वाध्यासापनयं कुरु ॥ २८३॥
बोधवान् मुनिको कोई भी वस्तु ग्राह्य अथवा त्याज्य न होनेसे कुछ भी कर्तव्य नहीं है, इसलिये निरन्तर आत्मनिष्ठाद्वारा आत्मामें हुए अध्यासको त्यागो। तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थब्रह्मात्मैकत्वबोधतः । ब्रह्मण्यात्मत्वदाया॑य स्वाध्यासापनयं कुरु ॥२८४॥ 'तत्त्वमसि' (छान्दो० ६।८) आदि महावाक्योंसे हुए ब्रह्म और आत्माके एकत्वज्ञानसे ब्रह्ममें आत्मबुद्धिको दृढ़ करनेके लिये अपने अध्यासको दूर करो।
अहंभावस्य देहेऽस्मिन्निःशेषविलयावधि। सावधानेन युक्तात्मा स्वाध्यासापनयं कुरु ॥ २८५॥
इस देहमें जो अहंभाव (मैं-पन) हो रहा है, उसका जबतक पूर्णतया लय न हो जाय, तबतक सावधानतापूर्वक युक्तचित्तसे अपने अध्यासको दूर करो।
प्रतीतिर्जीवजगतोः स्वप्नवद्भाति यावता। तावन्निरन्तरं विद्वन्स्वाध्यासापनयं कुरु ॥ २८६ ॥
जबतक स्वप्नके समान जीव और जगत्की प्रतीति हो रही है, तबतक हे विद्वन्! अपने आत्मामें हुए इस अध्यासका निरन्तर त्याग करते रहो।