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ब्रह्म-भावना
एकमेव
सदनेककारणं
कारणान्तरनिरासकारणम्
कार्यकारणविलक्षणं
नित्यमव्ययसुखं
ब्रह्म तत्त्वमसि
जो एक होकर भी अनेकोंका कारण तथा अन्य कारणोंके निषेधका कारण है; किन्तु जो स्वयं कार्य कारणभावसे अलग है वह ब्रह्म ही तुम हो ऐसा मनमें मनन करो।
निर्विकल्पकमनल्पमक्षरं
यत्क्षराक्षरविलक्षणं
निरञ्जनं
ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥ २६२ ॥
जो निर्विकल्प, महान् और अविनाशी है, क्षर (शरीर) और अक्षर (जीव ) - से भिन्न है तथा नित्य, अव्यय, आनन्दस्वरूप और निष्कलंक है वह ब्रह्म ही तुम हो - ऐसी हृदयमें भावना करो।
यद्विभाति
भ्रमा
सदनेकधा न्नामरूपगुणविक्रियात्मना
हेमवत्स्वयविक्रियं
स्वयं
तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥ २६९ ॥
सत्यचित्सुखमनन्तमव्ययं
७३
परम् ।
सदा
ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥ २६३ ॥
जो सर्वदा सत् और सुवर्णके समान स्वयं निर्विकार है तथापि भ्रमवश
[ उसके विकार कटक-कुण्डलादिके समान ] नाना नाम, रूप, गुण और विकारोंके रूपमें भासता है वह ब्रह्म ही तुम हो - ऐसा अपने चित्तमें चिन्तन करो। परात्परं
यच्चकास्त्यनपरं
प्रत्यगेकरसमात्मलक्षणम्
ब्रह्म तत्त्वमसि
तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥ २६४ ॥