________________
ब्रह्म-भावना
७१
जिस प्रकार स्वप्नमें निद्रा-दोषसे कल्पित देश, काल, विषय और ज्ञाता आदि सभी मिथ्या होते हैं, उसी प्रकार जाग्रत्-अवस्थामें भी यह जगत्, अपने अज्ञानका कार्य होनेके कारण, मिथ्या ही है। इस प्रकार क्योंकि ये शरीर, इन्द्रियाँ, प्राण और अहंकार आदि सभी असत्य हैं, अत: तुम वही परब्रह्म हो जो शान्त, निर्मल और अद्वितीय है। जातिनीतिकुलगोत्रदूरगं
नामरूपगुणदोषवर्जितम् । देशकालविषयातिवर्ति यद्
ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि॥२५५॥ जो जाति, नीति, कुल और गोत्रसे परे है; नाम, रूप, गुण और दोषसे रहित है तथा देश, काल और वस्तुसे भी पृथक् है तुम वही ब्रह्म होऐसी अपने अन्त:करणमें भावना करो। यत्परं
सकलवागगोचरं गोचरं विमलबोधचक्षुषः । शुद्धचिद्घनमनादिवस्तु यद्
ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि।। २५६॥ जो प्रकृतिसे परे और वाणीका अविषय है, निर्मल ज्ञानचक्षुओंसे जाना जा सकता है तथा शुद्ध चिद्घन अनादि वस्तु है, तुम वही ब्रह्म होऐसी अपने अन्त:करणमें भावना करो। षभिरूर्मिभिरयोगि योगिहृद्
भावितं न करणैर्विभावितम्। बुद्ध्यवेद्यमनवद्यभूति यद्
ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि॥ २५७॥
यत्र भ्रान्त्या कल्पितं तद्विवेके तत्तन्मात्रं नैव तस्माद्विभिन्नम्।
स्वप्ने नष्टे स्वप्नविश्वं विचित्रं स्वस्माद्भिन्न किन्नु दृष्टं प्रबोधे । जिसमें कोई वस्तु भ्रमसे कल्पित होती है विचार होनेपर वह तद्रूप ही प्रतीत होती है, उससे पृथक् नहीं। स्वप्नके नष्ट हो जानेपर जाग्रदवस्थामें क्या विचित्र स्वप्न-प्रपंच अपनेसे पृथक् दिखायी देता है?