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ब्रह्म-भावना
अस्थूलमित्येतदसन्निरस्य
सिद्धं स्वतो व्योमवदप्रतर्क्यम् । मृषामात्रमिदं प्रतीतं जहीहि यत्स्वात्मतया गृहीतम् ।
अतो
ब्रह्माहमित्येव विशुद्धबुद्ध्या
*
विद्धि स्वमात्मानमखण्डबोधम् ॥ २५२ ॥ 'अस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घम् (बृह० ३। ८। ७) इत्यादि श्रुतिसे असत् स्थूलता आदिका निरास करनेसे आकाशके समान व्यापक अतर्क्स वस्तु स्वयं ही सिद्ध हो जाती है। इसलिये आत्मरूपसे गृहीत ये देह आदि मिथ्या ही प्रतीत होते हैं, इनमें आत्मबुद्धिको छोड़; और 'मैं ब्रह्म हूँ' इस शुद्ध बुद्धिसे अखण्ड बोधस्वरूप अपने आत्माको जान ।
मृत्कार्यं सकलं घटादि सततं मृन्मात्रमेवाभितस्तद्वत्सज्जनितं सदात्मकमिदं सन्मात्रमेवाखिलम् । यस्मान्नास्ति सतः परं किमपि तत्सत्यं स आत्मा स्वयं तस्मात्तत्त्वमसि प्रशान्तममलं ब्रह्माद्वयं यत्परम् ॥ २५३ ॥
जिस प्रकार मृत्तिका कार्य घट आदि हर तरहसे मृत्तिका ही हैं, उसी प्रकार सत्से उत्पन्न हुआ यह सत्स्वरूप सम्पूर्ण जगत् सन्मात्र ही है। क्योंकि सत्से परे और कुछ भी नहीं है तथा वही सत्य और स्वयं आत्मा भी है, इसलिये जो शान्त, निर्मल और अद्वितीय परब्रह्म हैं वह तुम्हीं हो। निद्राकल्पितदेशकालविषयज्ञात्रादि सर्वं यथा
मिथ्या तद्वदिपि जाग्रति जगत्स्वाज्ञानकार्यत्वतः । यस्मादेवमिदं
शरीरकरणप्राणाहमाद्यप्यसत्
तस्मात्तत्त्वमसि प्रशान्तममलं ब्रह्माद्वयं यत्परम् * ॥ २५४ ॥
लक्ष्मीनारायणप्रेस मुरादाबादकी प्रतिमें इसके पश्चात् यह श्लोक और है