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महावाक्य-विचार
जीवात्मा और परमात्माकी अखण्डैकरसताकी सिद्धिके लिये महावाक्यमें लक्षणा करनेसे ही उनका ज्ञान होता है। उनका ठीक-ठीक ज्ञान न तो जहती-लक्षणासे होता है और न अजहतीसे ही; इसलिये इस जगह जहत्यजहती लक्षणाका प्रयोग करना चाहिये। स देवदत्तोऽयमितीह चैकता
विरुद्धधर्माशमपास्य कथ्यते। यथा तथा तत्त्वमसीति वाक्ये
विरुद्धधर्मानुभयत्र हित्वा ॥ २५०॥ 'वह देवदत्त यह है' इस वाक्यमें [ 'वह' शब्दका परोक्षत्व और 'यह' शब्दका अपरोक्षत्व इन दोनों ] विरुद्ध धर्मोंका बाध करके जिस प्रकार देवदत्तकी एकता ही बतलायी जाती है, उसी प्रकार 'तत्त्वमसि' इस वाक्यमें [ 'तत्' पदके वाच्य ईश्वरकी उपाधि 'माया' और 'त्वम्' पदके वाच्य जीवकी उपाधि 'अन्त:करण'-इन ] दोनोंके विरुद्ध धर्मोंका बाध करके [ शुद्ध चैतन्यांशकी ] एकता कही जाती है। संलक्ष्य चिन्मात्रतया सदात्मनो
रखण्डभावः परिचीयते बुधैः। एवं महावाक्यशतेन कथ्यते
ब्रह्मात्मनोरैक्यमखण्डभावः ॥२५१॥ इस प्रकार लक्षणाद्वारा जीवात्मा और परमात्माके चेतनांशकी एकताका निश्चय कर बुद्धिमान् जन उनके अखण्डभावका परिचय (ज्ञान) प्राप्त करते हैं। ऐसे ही सैकड़ों महावाक्योंसे ब्रह्म और आत्माकी अखण्ड एकताका स्पष्ट वर्णन किया गया है।