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महावाक्य- विचार
अहेयमनुपादेयं अप्रमेयमनाद्यन्तं
मनोवाचामगोचरम् ।
ब्रह्म
पूर्णं
महन्महः ॥ २४२ ॥
वह ब्रह्म त्याग अथवा ग्रहणके अयोग्य, मन-वाणीका अविषय, अप्रमेय, आदि - अन्तरहित, परिपूर्ण तथा महान् तेजोमय है।
महावाक्य- विचार पदाभ्यामभिधीयमानयोब्रह्मात्मनो: शोधितयोर्यदीत्थम् ।
तत्त्वं
श्रुत्या तयोस्तत्त्वमसीति सम्य
६७
गेकत्वमेव प्रतिपाद्यते मुहुः ॥ २४३ ॥
'तत्त्वमसि' (छान्दो० ६।८) आदि वाक्योंके तत् और त्वम् पदोंसे शोधन करके कहे हुए ब्रह्म और आत्माका श्रुतिके द्वारा बारम्बार पूर्ण एकत्व प्रतिपादन किया गया है।
ऐक्यं तयोर्लक्षितयोर्न वाच्ययोनिगद्यतेऽन्योन्यविरुद्धधर्मिणोः । राजभृत्ययोः कूपाम्बुराश्योः परमाणुमेर्वोः ॥ २४४ ॥
खद्योतभान्वोरिव
और कूप
उन सूर्य और खद्योत (जुगनू), राजा और सेवक, समुद्र तथा सुमेरु और परमाणुके समान परस्पर विरुद्ध धर्मवालोंका एकत्व
लक्ष्यार्थमें ही कहा गया है, वाच्यार्थमें नहीं ।
तयोर्विरोधोऽयमुपाधिकल्पितो
न वास्तवः कश्चिदुपाधिरेषः । माया महदादिकारणं
ईशस्य
जीवस्य कार्यं शृणु पंचकोशम् ॥ २४५ ॥
उन दोनोंका यह विरोध उपाधिके कारण है और यह उपाधि कुछ वास्तविक नहीं है । ईश्वरकी उपाधि महत्तत्त्वादिकी कारणरूपा माया है तथा जीवकी उपाधि कार्यरूप पंचकोश हैं।
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