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विवेक-चूडामणि
भ्रान्तस्य यद्यभ्रमतः प्रतीतं
ब्रह्मैव तत्तद्रजतं हि शुक्तिः । इदंतया ब्रह्म सदैव रूप्यते
त्वारोपितं ब्रह्मणि नाममात्रम्॥२३८॥ अज्ञानीको अज्ञानवश जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह सब ब्रह्म ही है; जिस प्रकार भ्रमसे प्रतीत हुई चाँदी वस्तुत: सीपी ही है। [ इदं जगत् (यह जगत् है)-इसमें ] इदम् (यह) रूपसे सदा ब्रह्म ही कहा जाता है, ब्रह्ममें आरोपित [ जगत् ] तो नाममात्र ही है।
ब्रह्म-निरूपण अतः परं ब्रह्म सदद्वितीयं
विशुद्धविज्ञानघनं निरञ्जनम्। प्रशान्तमाद्यन्तविहीनमक्रियं
निरन्तरानन्दरसस्वरूपम् ॥२३९ ॥ इसलिये परब्रह्म सत्, अद्वितीय, शुद्ध विज्ञानघन, निर्मल, शान्त, आदि-अन्तरहित, अक्रिय और सदैव आनन्दरसस्वरूप है। निरस्तमायाकृतसर्वभेदं
नित्यं सुखं निष्कलमप्रमेयम्। अरूपमव्यक्तमनाख्यमव्ययं
ज्योतिःस्वयं किञ्चिदिदं चकास्ति ॥ २४०॥ वह समस्त मायिक भेदोंसे रहित है; नित्य, सुख-स्वरूप, कलारहित और प्रमाणादिका अविषय है तथा वह कोई अरूप, अव्यक्त, अनाम और अक्षय तेज है जो स्वयं ही प्रकाशित हो रहा है। ज्ञातृज्ञेयज्ञानशून्यमनन्तं निर्विकल्पकम्। केवलाखण्डचिन्मानं परं तत्त्वं विदुर्बुधाः ।। २४१॥
बुधजन उस परम तत्त्वको ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय इस त्रिपुटीसे रहित, अनन्त, निर्विकल्प, केवल और अखण्ड-चैतन्यमात्र जानते हैं।
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