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ब्रह्म और जगत्की एकता
है, जिसके द्वारा बुद्धिमान् पुरुष अद्वितीय आनन्दस्वरूप ब्रह्मपदको प्राप्त कर लेता है। ब्रह्मभूतस्तु संसृत्यै विद्वान्नावर्तते पुनः। विज्ञातव्यमतः सम्यग्ब्रह्माभिन्नत्वमात्मनः॥२२६ ॥
ब्रह्मभूत हो जानेपर विद्वान् फिर जन्म-मरणरूप संसारचक्रमें नहीं पड़ता; इसलिये आत्माका ब्रह्मसे अभिन्नत्व भली प्रकार जान लेना चाहिये।
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म विशुद्ध परं स्वतःसिद्धम्। नित्यानन्दैकरसं प्रत्यगभिन्नं निरन्तरं जयति ॥२२७॥
ब्रह्म सत्य ज्ञानस्वरूप और अनन्त है; वह शुद्ध, पर, स्वतःसिद्ध, नित्य, एकमात्र आनन्दरसस्वरूप, प्रत्यक् (अन्तरतम) और अभिन्न है, तथा निरन्तर उन्नतिशाली है।
ब्रह्म और जगत्की एकता सदिदं परमाद्वैतं स्वस्मादन्यस्य वस्तुनोऽभावात्। न ह्यन्यदस्ति किञ्चित्सम्यक्परमार्थतत्त्वबोधे हि॥२२८॥
यह परमाद्वैत ही एक सत्य पदार्थ है, क्योंकि इस स्वात्मासे अतिरिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं। इस परमार्थ-तत्त्वका पूर्ण बोध हो जानेपर और कुछ भी नहीं रहता। यदिदं सकलं विश्वं नानारूपं प्रतीतमज्ञानात्। तत्सर्वं ब्रह्मैव प्रत्यस्ताशेषभावनादोषम्॥ २२९॥
यह सम्पूर्ण विश्व, जो अज्ञानसे नाना प्रकारका प्रतीत हो रहा है, समस्त भावनाओंके दोषसे रहित [ अर्थात् निर्विकल्प ] ब्रह्म ही है। मृत्कार्यभूतोऽपि मृदो न भिन्नः
कुम्भोऽस्ति सर्वत्र तु मृत्स्वरूपात्। न कुम्भरूपं पृथगस्ति कुम्भः
कुतो मृषा कल्पितनाममात्रः॥२३०॥