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देहं
धियं
चित्प्रतिविम्बमेतं विसृज्य बुद्धौ निहितं गुहायाम् ।
द्रष्टारमात्मानमखण्डबोधं
विवेक-चूडामणि
सर्वप्रकाशं सदसद्विलक्षणम् ॥ २२२ ॥
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्ममन्तर्बहिः शून्यमनन्यमात्मनः सम्यनिजरूपमेतत्
विज्ञाय
पुमान्विपाप्मा विरजो विमृत्युः ॥ २२३ ॥ विद्वान् पुरुष घड़ा, जल और उसमें स्थित सूर्यका प्रतिविम्ब - इन सबको छोड़कर जैसे इन तीनोंके प्रकाशक इनसे पृथक् और स्वयंप्रकाशरूप सूर्यको देखता है, उसी प्रकार देह, बुद्धि और चिदाभास- इन तीनोंको छोड़कर बुद्धिगुहामें स्थित साक्षीरूप इस आत्माको अखण्डबोधस्वरूप, सबके प्रकाशक और सत्-असत् दोनोंसे भिन्न, नित्य, विभु, सर्वगत, सूक्ष्म, भीतर-बाहरके भेदसे रहित और अपने आपसे सर्वथा अभिन्न इस - (आत्मा) को भलीभाँति अपना निजरूप जानकर पुरुष पापरहित, निर्मल और अमर हो जाता है।
विशोक आनन्दघनो विपश्चित्
स्वयं कुतश्चिन्न बिभेति कश्चित् । नान्योऽस्ति पन्था भवबन्धमुक्ते
विना स्वतत्त्वावगमं मुमुक्षोः ॥ २२४ ॥
वह अति बुद्धिमान् पुरुष शोकरहित और आनन्दघनरूप हो जानेसे कभी किसीसे भयभीत नहीं होता। मुमुक्षु पुरुषके लिये आत्मतत्त्वके ज्ञानको छोड़कर संसारबन्धनसे छूटनेका और कोई मार्ग नहीं है। ब्रह्माभिन्नत्वविज्ञानं भवमोक्षस्य कारणम् । येनाद्वितीयमानन्दं ब्रह्म सम्पद्यते बुधैः ॥ २२५ ॥ ब्रह्म और आत्मा अभेदका ज्ञान ही भवबन्धनसे मुक्त होनेका कारण