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विवेक-चूडामणि
असन्निवृत्तौ तु सदात्मना स्फुटं
प्रतीतिरेतस्य भवेत्प्रतीचः। ततो निरासः करणीय एवा
सदात्मनः साध्वहमादिवस्तुनः॥२०७॥ सत्य आत्माके विचारसे असत्की निवृत्ति होनेपर इस प्रत्यक् (आन्तरिक) आत्माकी स्पष्ट प्रतीति होने लगती है। अत: अहंकार आदि असदात्माओंका भली प्रकार बाध करना ही चाहिये।
अतो नायं परात्मा स्याद्विज्ञानमयशब्दभाक्। विकारित्वाज्जडत्वाच्च परिच्छिन्नत्वहेतुतः । दृश्यत्वाद्व्यभिचारित्वान्नानित्यो नित्य इष्यते॥ २०८ ।।
अतएव विज्ञानमय शब्दसे कहा जानेवाला यह विज्ञानमय कोश भी विकारी, जड, परिच्छिन्न तथा दृश्य और व्यभिचारी होनेके कारण परात्मा नहीं हो सकता; [ क्योंकि यह अनित्य है ] और अनित्य वस्तु कभी नित्य नहीं हो सकती।
आनन्दमय कोश आनन्दप्रतिविम्बचुम्बिततनुर्वृत्तिस्तमोजृम्भिता स्यादानन्दमयः प्रियादिगुणक: स्वेष्टार्थलाभोदयः। पुण्यस्यानुभवे विभाति कृतिनामानन्दरूपः स्वयं भूत्वा नन्दति यत्र साधु तनुभृन्मात्रः प्रयत्नं विना॥२०९॥
आनन्दस्वरूप आत्माके प्रतिविम्बसे चुम्बित तथा तमोगुणसे प्रकट हुई वृत्ति आनन्दमय कोश है। वह प्रिय आदि (प्रिय, मोद और प्रमोद-इन तीन) गुणोंसे युक्त है और अपने अभीष्ट पदार्थके प्राप्त होनेपर प्रकट होती है। पुण्य-कर्मके परिपाक होनेपर उसके फलरूप सुखका अनुभव करते समय भाग्यवान् पुरुषोंको उस आनन्दमय कोशका स्वयं ही भान होता है, जिससे सम्पूर्ण देहधारी जीव बिना प्रयत्नके ही अति आनन्दित होते हैं।