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आत्मज्ञान ही मुक्तिका उपाय है
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यह जीव-भाव अनादि होनेपर भी प्रागभावके समान नित्य नहीं है, क्योंकि अनादि प्रागभावका भी ध्वंस होना देखा ही गया है। यद्बुद्ध्युपाधिसम्बन्धात्परिकल्पितमात्मनि ॥२०२॥ जीवत्वं न ततोऽन्यत्तु स्वरूपेण विलक्षणम्। सम्बन्धः स्वात्मनो बुद्ध्या मिथ्याज्ञानपुरःसरः॥२०३॥ विनिवृत्तिर्भवेत्तस्य सम्यग्ज्ञानेन नान्यथा। ब्रह्मात्मैकत्वविज्ञानं सम्यग्ज्ञानं श्रुतेर्मतम् ॥ २०४॥
अत: जिस जीवत्वको बुद्धिरूप उपाधिके सम्बन्धसे ही आत्मामें कल्पना हुई है, वह स्वरूपसे उस (आत्मा)-से पृथक् नहीं हो सकता। बुद्धिके साथ यह आत्माका सम्बन्ध मिथ्या ज्ञानके ही कारण है। इसकी निवृत्ति ठीक-ठीक ज्ञान हो जानेसे ही हो सकती है और किसी प्रकार नहीं; तथा ब्रह्म और आत्माकी एकताका ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान हैऐसा श्रुतिका सिद्धान्त है [ अतः ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान हो जानेसे जीवभावकी निवृत्ति हो जाती है |
तदात्मानात्मनोः सम्यग्विवेकेनैव सिध्यति। ततो विवेकः कर्तव्यः प्रत्यगात्मासदात्मनोः ॥२०५॥
उस ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञानकी सिद्धि आत्मा और अनात्माका भली प्रकार विवेक (पार्थक्य-ज्ञान) हो जानेसे ही होती है। इसलिये प्रत्यगात्मा और मिथ्यात्माका भली प्रकार विवेचन करना चाहिये।
जलं पङ्कवदत्यन्तं पङ्कापाये जलं स्फुटम्। यथा भाति तथात्मापि दोषाभावे स्फुटप्रभः ।। २०६॥
अत्यन्त गँदला जल भी जिस प्रकार कीचड़के बैठ जानेपर स्वच्छ जलमात्र रह जाता है उसी प्रकार दोषसे रहित हो जानेपर आत्मा भी स्पष्टतया प्रकाशित होने लगता है।