________________
विवेक-चूडामणि
जो असंग, निष्क्रिय और निराकार है, उस आत्माका पदार्थोंसे, नीलता आदिसे आकाशके समान भ्रमके अतिरिक्त और किसी प्रकार सम्बन्ध नहीं हो सकता। स्वस्य द्रष्टुर्निर्गुणस्याक्रियस्य
प्रत्यग्बोधानन्दरूपस्य बुद्धेः। भ्रान्त्या प्राप्तो जीवभावो न सत्यो
मोहापाये नास्त्यवस्तुस्वभावात्॥१९८॥ साक्षी, निर्गुण, अक्रिय और प्रत्यग्ज्ञानानन्दस्वरूप उस आत्मामें बुद्धिके भ्रमसे ही जीव-भावकी प्राप्ति हुई है, वह वास्तविक नहीं है; क्योंकि वह अवस्तुरूप होनेसे, मोह दूर हो जानेपर स्वभावसे ही नहीं रहता। यावद् भ्रान्तिस्तावदेवास्य सत्ता
मिथ्याज्ञानोज्जृम्भितस्य प्रमादात्। रज्ज्वां सो भ्रान्तिकालीन एव
भ्रान्ते शे नैव सर्पोऽपि तद्वत्॥१९९।। जैसे भ्रमकी स्थितिपर्यन्त ही रज्जुमें सर्पकी प्रतीति होती है, भ्रमके नाश होनेपर फिर सर्प प्रतीत नहीं होता, वैसे ही जबतक भ्रम है, तभीतक प्रमादवश मिथ्या ज्ञानसे प्रकट हुए इस (जीव-भाव)-की सत्ता है।
अनादित्वमविद्यायाः कार्यस्यापि तथेष्यते। उत्पन्नायां तु विद्यायामाविद्यकमनाद्यपि ॥ २००॥ प्रबोधे स्वप्नवत्सर्वं सहमूलं विनश्यति।
लोकमें अविद्या और उसके कार्य जीव-भावका अनादित्व माना जाता है। किन्तु जग पड़नेपर जैसे सम्पूर्ण स्वप्न-प्रपंच अपने मूलसहित नष्ट हो जाता है उसी प्रकार ज्ञानोदय होनेपर अविद्या-जनित जीव-भावका नाश हो जाता है।
अनाद्यपीदं नो नित्यं प्रागभाव इव स्फुटम्॥२०१॥ अनादेरपि विध्वंसः प्रागभावस्य वीक्षितः।