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आनन्दमय कोश
आनन्दमयकोशस्य सुषुप्तौ स्फूर्तिरुत्कटा। स्वप्नजागरयोरीषदिष्टसंदर्शनादिना ॥२१०॥
आनन्दमय कोशकी उत्कट (तीव्र) प्रतीति तो सुषुप्तिमें ही होती है, तथापि जागर्ति और स्वप्नमें भी इष्टवस्तुके दर्शन आदिसे उसका यत्किंचित् भान होता है। नैवायमानन्दमयः
परात्मा सोपाधिकत्वात्प्रकृतेर्विकारात् । कार्यत्वहेतोः सुकृतक्रियाया
विकारसङ्घातसमाहितत्वात् ॥२११॥ यह परात्मा आनन्दमय नहीं है, क्योंकि आनन्द उपाधियुक्त एवं प्रकृतिका विकार है, शुभ कर्मोंका कार्य है और प्रकृतिके विकारोंके समूह (स्थूल-शरीर)-के आश्रित है। पंचानामपि कोशानां निषेधे युक्तितः श्रुतेः। तन्निषेधावधिः साक्षी बोधरूपोऽवशिष्यते॥२१२॥
श्रुतिके अनुकूल युक्तियोंसे पाँचों कोशोंका निषेध कर देनेपर उनके निषेधकी अवधिरूप (शुद्ध) बोधस्वरूप साक्षी आत्मा बच रहता है। योऽयमात्मा स्वयंज्योतिः पञ्चकोशविलक्षणः। अवस्थात्रयसाक्षी सन्निर्विकारो निरंजनः। सत्स्वरूपः स विज्ञेयः स्वात्मत्वेन विपश्चिता ॥ २१३॥
इस प्रकार जो आत्मा स्वयंप्रकाश, अन्नमयादि पाँचों कोशोंसे पृथक् तथा जाग्रत् , स्वप और सुषुप्ति–तीनों अवस्थाओंका साक्षी होकर सत्रूप निर्विकार, निर्मल और शुद्धसत्स्वरूप है, उसे ही विद्वान् पुरुषको अपना वास्तविक आत्मा समझना चाहिये।