________________
विवेक-चूडामणि
सुषुप्ति-कालमें मनके लीन हो जानेपर कुछ भी नहीं रहता-यह बात सबको विदित ही है। अतः इस पुरुष (जीव)-का यह संसार-मनकी कल्पनामात्र ही है, वस्तुत: नहीं। वायुनानीयते मेघः पुनस्तेनैव नीयते। मनसा कल्प्यते बन्धो मोक्षस्तेनैव कल्प्यते॥१७४॥
मेघ वायुके द्वारा आता है और फिर उसीके द्वारा चला जाता है, इसी प्रकार मनसे ही बन्धनकी कल्पना होती है और उसीसे मोक्षकी। देहादिसर्वविषये परिकल्प्य रागं
बध्नाति तेन पुरुषं पशुवद्गुणेन। वैरस्यमत्र विषवत्सु विधाय पश्चा
देनं विमोचयति तन्मन एव बन्धात्॥ १७५ ॥ यह मन ही देह आदि सब विषयोंमें रागकी कल्पना करके उसके द्वारा रस्सीसे पशुकी भाँति पुरुषको बाँधता है और फिर इन विषवत् विषयोंमें विरसता उत्पन्न करके इसको बन्धनसे मुक्त कर देता है। तस्मान्मनः कारणमस्य जन्तो
बन्धस्य मोक्षस्य च वा विधाने। बन्धस्य हेतुर्मलिनं रजोगुणै
र्मोक्षस्य शुद्धं विरजस्तमस्कम्॥१७६ ॥ इसलिये इस जीवके बन्धन और मोक्षके विधानमें मन ही कारण है, रजोगुणसे मलिन हुआ यह बन्धनका हेतु होता है तथा रज-तमसे रहित शुद्ध सात्त्विक होनेपर मोक्षका कारण होता है। विवेकवैराग्यगुणातिरेका
च्छुद्धत्वमासाद्य मनो विमुक्त्यै। भवत्यतो बुद्धिमतो मुमुक्षो
स्ताभ्यां दृढाभ्यां भवितव्यमग्रे॥१७७॥