________________
मनोमय कोश
पञ्चेन्द्रियैः पञ्चभिरेव होतृभिः प्रचीयमानो विषयाज्यधारया | जाज्वल्यमानो बहुवासनेन्धनैमनोमयाग्निर्दहति प्रपंचम् ॥ १७० ॥
पंचेन्द्रियरूप पाँच होताओंद्वारा विषयरूपी घृतकी आहुतियोंसे बढ़ाया हुआ तथा नाना प्रकारकी वासनारूप ईंधनसे प्रज्वलित हुआ यह मनोमय अग्नि (यज्ञ) सम्पूर्ण दृश्य-प्रपंचको दग्ध कर देता है। [ अर्थात् जिस समय इन्द्रियाँ वासनारूपी ईंधनको जलाकर प्रकट किये मनोमय अग्निमें विषयोंको हवन कर देती हैं उस समय यह सम्पूर्ण प्रपंच लीन हो जाता है। ] न ह्यस्त्यविद्या मनसोऽतिरिक्ता मनो ह्यविद्या भवबन्धहेतुः । सकलं विनष्टं
तस्मिन्विनष्टे
विजृम्भितेऽस्मिन्सकलं विजृम्भते ॥ १७१ ॥
मनसे अतिरिक्त अविद्या और कुछ नहीं है, मन ही भवबन्धनकी हेतुभूता अविद्या है। उसके नष्ट होनेपर सब नष्ट हो जाता है और उसीके जागृत होनेपर सब कुछ प्रतीत होने लगता है। स्वप्नेऽर्थशून्ये सृजति स्वशक्त्या भोक्त्रादि विश्वं मन एव सर्वम् । तथैव जाग्रत्यपि नो विशेष
४९
स्तत्सर्वमेतन्मनसो विजृम्भणम् ॥ १७२ ॥
जिसमें कोई पदार्थ नहीं होता उस स्वप्नमें मन ही अपनी शक्तिसे सम्पूर्ण भोक्ता - भोग्यादि प्रपंच रचता है, उसी प्रकार जागृतिमें भी और कोई विशेषता नहीं है, अतः यह सब मनका विलासमात्र ही है। मनसि प्रलीने नैवास्ति किञ्चित्सकलप्रसिद्धेः ।
सुषुप्तिकाले
अतो मनः कल्पित एव पुंसः
संसार एतस्य न वस्तुतोऽस्ति ॥ १७३ ॥