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प्राणमय कोश
कर्मेन्द्रियैः पंचभिरञ्चितोऽयं
प्राणो भवेत्प्राणमयस्तु कोशः। येनात्मवानन्नमयोऽन्नपूर्णः
प्रवर्ततेऽसौ सकलक्रियासु॥१६७॥ पाँच कर्मेन्द्रियोंसे युक्त यह प्राण ही प्राणमय कोश कहलाता है, जिससे युक्त यह अन्नमय कोश अन्नसे तृप्त होकर समस्त कर्मोंमें प्रवृत्त होता है। नैवात्मापि प्राणमयो वायुविकारो
गन्तागन्ता वायुवदन्तर्बहिरेषः। यस्मात्किञ्चित्क्वापि न वेत्तीष्टमनिष्टं
स्वं वान्यं वा किञ्चन नित्यं परतन्त्रः॥१६८॥ प्राणमय कोश भी आत्मा नहीं है, क्योंकि यह वायुका विकार है, वायुके समान ही बाहर-भीतर जाने-आनेवाला है और नित्य परतन्त्र है। यह कभी अपना इष्ट-अनिष्ट, अपना-पराया भी कुछ नहीं जानता।
मनोमय कोश ज्ञानेन्द्रियाणि च मनश्च मनोमयः स्यात्
कोशो ममाहमिति वस्तुविकल्पहेतुः। संज्ञादिभेदकलनाकलितो बलीयां
स्तत्पूर्वकोशमभिपूर्य विजृम्भते यः॥१६९॥ ज्ञानेन्द्रियाँ और मन ही 'मैं, मेरा' आदि विकल्पोंका हेतु मनोमय कोश है, जो नामादि भेद-कलनाओंसे जाना जाता है और बड़ा बलवान् है, तथा पूर्व-कोशोंको व्याप्त करके स्थित है। '