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मनोमय कोश
विवेक-वैराग्यादि गुणोंके उत्कर्षसे शुद्धताको प्राप्त हुआ मन मुक्तिका हेतु होता है, अत: पहले बुद्धिमान् मुमुक्षुके वे (ज्ञान-वैराग्य) दोनों ही दृढ़ होने चाहिये।
मनो नाम महाव्याघ्रो विषयारण्यभूमिषु। चरत्यत्र न गच्छन्तु साधवो ये मुमुक्षवः॥ १७८॥
मन नामका भयंकर व्याघ्र विषयरूप वनमें घूमता फिरता है। जो साधु मुमुक्षु हैं, वे वहाँ न जायें। मनः प्रसूते विषयानशेषान्
स्थूलात्मना सूक्ष्मतया च भोक्तुः। शरीरवर्णाश्रमजातिभेदान्
गुणक्रियाहेतुफलानि नित्यम्॥१७९॥ मन ही सम्पूर्ण स्थूल-सूक्ष्म विषयोंको, शरीर, वर्ण, आश्रम, जाति आदि भेदोंको तथा गुण, क्रिया, हेतु और फलादिको भोक्ताके लिये नित्य उत्पन्न करता रहता है। असङ्गचिद्रूपममुं विमोह्य
देहेन्द्रियप्राणगुणैर्निबध्य अहंममेति
भ्रमयत्यजस्त्रं मनः स्वकृत्येषु फलोपभुक्तिषु ।।१८०॥ इस असंग चिद्रूप आत्माको मोहित करके तथा इसे देह, इन्द्रिय, प्राणादि गुणोंसे बाँधकर, यह मन ही इसको 'मैं-मेरा' भावसे अपने कर्म और उनके फलोपभोगमें निरन्तर भटकाता है। अध्यासदोषात्पुरुषस्य संसृति
रध्यासबन्धस्त्वमुनैव कल्पितः। रजस्तमोदोषवतोऽविवेकिनो
जन्मादिदुःखस्य निदानमेतत्॥१८१॥ अध्यास-दोषसे ही पुरुषको जन्म-मरणरूप संसार होता है और यह