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विवेक-चूडामणि
और ठंडी-ठंडी आँधी सबको खिन्न कर देती है, उसी प्रकार बुद्धिके निरन्तर तमोगुणसे आवृत होनेपर मूढ़ पुरुषको विक्षेपशक्ति नाना प्रकारके दुःखोंसे सन्तप्त करती है।
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एताभ्यामेव शक्तिभ्यां बन्धः पुंसः समागतः । याभ्यां विमोहितो देहं मत्वात्मानं भ्रमत्ययम् ॥ १४६ ॥
इन दोनों (आवरण और विक्षेप) शक्तियोंसे ही पुरुषको बन्धनकी प्राप्ति हुई है और इन्हींसे मोहित होकर यह देहको आत्मा मानकर संसारचक्रमें भ्रमता रहता है।
बन्ध-निरूपण
बीजं संसृतिभूमिजस्य तु तमो देहात्मधीरङ्कुरो
रागः पल्लवमम्बु कर्म तु वपुः स्कन्धोऽसवः शाखिकाः । अग्राणीन्द्रियसंहतिश्च विषयाः पुष्पाणि दुःखं फलं नानाकर्मसमुद्भवं बहुविधं भोक्तात्र जीवः खगः ॥ १४७ ॥
संसाररूपी वृक्षका बीज अज्ञान है, देहात्मबुद्धि उसका अंकुर है, राग पत्ते हैं, कर्म जल है, शरीर स्तम्भ (तना) है, प्राण शाखाएँ हैं, इन्द्रियाँ उपशाखाएँ (गुद्दे) हैं, विषय पुष्प हैं और नाना प्रकारके कर्मोंसे उत्पन्न हुआ दुःख फल है तथा जीवरूपी पक्षी ही इनका भोक्ता है।
अज्ञानमूलोऽयमनात्मबन्धो
नैसर्गिको ऽनादिरनन्त ईरितः ।
जन्माप्ययव्याधिजरादिदुःख
प्रवाहपातं
जनयत्यमुष्य ।। १४८ ।।
यह अज्ञानजनित अनात्म-बन्धन स्वाभाविक तथा अनादि और अनन्त कहा गया है। यही जीवके जन्म, मरण, व्याधि और जरा (वृद्धावस्था) आदि दुःखोंका प्रवाह उत्पन्न कर देता है।