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आत्मानात्म-विवेक
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आत्मानात्म-विवेक नास्त्रैर्न शस्त्रैरनिलेन वलिना
छेत्तुं न शक्यो न च कर्मकोटिभिः । विवेकविज्ञानमहासिना विना
धातुः प्रसादेन सितेन मञ्जुना॥१४९॥ यह बन्धन विधाताकी विशुद्ध कृपासे प्राप्त हुए विवेक-विज्ञान-रूप शुभ्र और मंजुल महाखड्गके बिना और किसी अस्त्र, शस्त्र, वायु, अग्नि अथवा करोड़ों कर्मकलापोंसे भी नहीं काटा जा सकता। श्रुतिप्रमाणैकमतेः स्वधर्म
निष्ठा तयैवात्मविशुद्धिरस्य। विशुद्धबुद्धेः परमात्मवेदनं ।
तेनैव संसारसमूलनाशः॥१५०॥ जिसका श्रुतिप्रामाण्यमें दृढ़ निश्चय होता है, उसीकी स्वधर्ममें निष्ठा होती है और उसीसे उसकी चित्तशुद्धि हो जाती है; जिसका चित्त शुद्ध होता है उसीको परमात्माका ज्ञान होता है और इस ज्ञानसे ही संसाररूपी वृक्षका समूल नाश होता है।
कोशैरन्नमयाद्यैः पञ्चभिरात्मा न संवृतो भाति। निजशक्तिसमुत्पन्नैः शैवालपटलैरिवाम्बुवापीस्थम्॥१५१॥
अन्नमय आदि पाँच कोझेसे आवृत हुआ आत्मा, अपनी ही शक्तिसे उत्पन्न हुए शिवाल-पटलसे ढंके हुए वापीके जलकी भाँति नहीं भासता। तच्छैवालापनये सम्यक् सलिलं प्रतीयते शुद्धम्। तृष्णासन्तापहरं सद्यः सौख्यप्रदं परं पुंसः।।१५२॥ पञ्चानामपि कोशानामपवादे विभात्ययं शुद्धः। नित्यानन्दैकरसः प्रत्यग्रूपः परः स्वयंज्योतिः॥१५३ ।।
जिस प्रकार उस शिवालके पूर्णतया दूर हो जानेपर मनुष्योंके तृषारूपी तापको दूर करनेवाला तथा उन्हें तत्काल ही परम सुख-प्रदान करनेवाला जल