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अध्यास
विलीयमानेऽपि वपुष्यमुष्मिन्
न लीयते कुम्भ इवाम्बरं स्वयम्॥१३६॥ वह न जन्मता है, न मरता है, न बढ़ता है, न घटता है और न विकारको प्राप्त होता है। वह नित्य है और इस शरीरके लीन होनेपर भी घटके टूटनेपर घटाकाशके समान लीन नहीं होता। प्रकृतिविकृतिभिन्नः शुद्धबोधस्वभावः
सदसदिदमशेषं भासयन्निर्विशेषः । विलसति परमात्मा जाग्रदादिष्ववस्था
स्वहमहमिति साक्षात् साक्षिरूपेण बुद्धेः॥१३७॥ प्रकृति और उसके विकारोंसे भिन्न, शुद्ध ज्ञानस्वरूप, वह निर्विशेष परमात्मा सत्-असत् सबको प्रकाशित करता हुआ जाग्रत् आदि अवस्थाओंमें अहंभावसे स्फुरित होता हुआ बुद्धिके साक्षीरूपसे साक्षात् विराजमान है। नियमितमनसामुं त्वं स्वमात्मानमात्म
न्ययमहमिति साक्षाद्विद्धि बुद्धिप्रसादात्। जनिमरणतरङ्गापारसंसारसिन्धुं
प्रतर भव कृतार्थों ब्रह्मरूपेण संस्थः॥१३८॥ तू इस आत्माको संयतचित्त होकर बुद्धिके प्रसन्न होनेपर 'यह मैं हूँ'-ऐसा अपने अन्तःकरणमें साक्षात् अनुभव कर। और [ इस प्रकार ] जन्म-मरणरूपी तरंगोंवाले इस अपार संसार-सागरको पार कर तथा ब्रह्मरूपसे स्थित होकर कृतार्थ हो जा।
अध्यास अत्रानात्मन्यहमिति मतिर्बन्ध एषोऽस्य पुंसः प्राप्तोऽज्ञानाज्जननमरणक्लेशसम्पातहेतुः । येनैवायं वपुरिदमसत्सत्यमित्यात्मबुद्ध्या पुष्यत्युक्षत्यवति विषयैस्तन्तुभिः कोशकृद्वत्॥१३९॥