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आत्म-निरूपण
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अब मैं तुझे परमात्माका स्वरूप बताता हूँ जिसे जानकर मनुष्य बन्धनसे छूटकर कैवल्यपद प्राप्त करता है।
अस्ति कश्चित् स्वयं नित्यमहंप्रत्ययलम्बनः। अवस्थात्रयसाक्षी सन्पञ्चकोशविलक्षणः॥१२७॥
अहं-प्रत्ययका आधार कोई स्वयं नित्य पदार्थ है, जो तीनों अवस्थाओंका साक्षी होकर भी पंचकोशातीत है। यो विजानाति सकलं जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु। बुद्धितवृत्तिसद्भावमभावमहमित्ययम् ॥१२८॥
जो जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओंमें बुद्धि और उसकी वृत्तियोंके होने और न होनेको 'अहंभाव' से स्थित हुआ जानता है।
यः पश्यति स्वयं सर्वं यं न पश्यति कश्चन। यश्चेतयति बद्ध्यादिं न तु यं चेतयत्ययम्॥१२९॥
जो स्वयं सबको देखता है किन्तु जिसको कोई नहीं देख सकता, जो बुद्धि आदिको प्रकाशित करता है किन्तु जिसे बुद्धि आदि प्रकाशित नहीं कर सकते।
येन विश्वमिदं व्याप्तं यन्न व्याप्नोति किञ्चन। आभारूपमिदं सर्वं यं भान्तमनुभात्ययम्॥१३०॥
जिसने सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त किया हुआ है किन्तु जिसे कोई व्याप्त नहीं कर सकता तथा जिसके भासनेपर यह आभासरूप सारा जगत् भासित हो रहा है।
यस्य सन्निधिमात्रेण देहेन्द्रियमनोधियः। विषयेषु स्वकीयेषु वर्तन्ते प्रेरिता इव॥१३१॥
जिसकी सन्निधिमात्रसे देह, इन्द्रिय, मन और बुद्धि प्रेरित हुए-से अपने-अपने विषयों में बर्तते हैं।
अहङ्कारादिदेहान्ता विषयाश्च सुखादयः । वेद्यन्ते घटवद्येन नित्यबोधस्वरूपिणा॥१३२ ।।