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विवेक-चूडामणि
इनसे विषयका ज्ञान होता है; तथा वाक्, पाणि, पाद, गुदा और उपस्थये कर्मेन्द्रियाँ हैं, क्योंकि इनका कर्मोंकी ओर झुकाव होता है।
अन्तःकरणचतुष्टय निगद्यतेऽन्तःकरणं मनोधी
रहंकृतिश्चित्तमिति स्ववृत्तिभिः । मनस्तु सङ्कल्पविकल्पनादिभि
बुद्धिः पदार्थाध्यवसायधर्मतः॥९५ ॥ अत्राभिमानादहमित्यहङ्कृतिः
स्वार्थानुसन्धानगुणेन चित्तम्॥९६॥ अपनी वृत्तियोंके कारण अन्त:करण मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार [ इन चार नामोंसे ] कहा जाता है। संकल्प-विकल्पके कारण मन, पदार्थका निश्चय करनेके कारण बुद्धि, 'अहम्-अहम्' (मैं-मैं) ऐसा अभिमान करनेसे अहंकार, और अपना इष्ट-चिन्तनके कारण यह चित्त कहलाता है।
पंचप्राण प्राणापानव्यानोदानसमाना भवत्यसौ प्राणः। स्वयमेव वृत्तिभेदाद्विकृतिभेदात्सुवर्णसलिलादिवत्॥९७॥
अपने विकारोंके कारण सुवर्ण और जल आदिके समान स्वयं प्राण ही वृत्तिभेदसे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान–इन पाँच नामोंवाला होता है।