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विवेक-चूडामणि
ततः श्रुतिस्तन्मननं सतत्त्व
ध्यानं चिरं नित्यनिरन्तरं मुनेः । ततोऽविकल्पं परमेत्य विद्वा
निहैव निर्वाणसुखं समृच्छति॥७२॥ मोक्षका प्रथम हेतु अनित्य वस्तुओंमें अत्यन्त वैराग्य होना कहा है, तदनन्तर शम, दम, तितिक्षा और सम्पूर्ण आसक्तियुक्त कर्मोंका सर्वथा त्याग है। तदुपरान्त मुनिको श्रवण, मनन और चिरकालतक नित्य-निरन्तर आत्म-तत्त्वका ध्यान करना चाहिये। तब वह विद्वान् परम निर्विकल्पावस्थाको प्राप्त होकर निर्वाण-सुखको पाता है। यद्बोद्धव्यं तवेदानीमात्मानात्मविवेचनम्। तदुच्यते मया सम्यक् श्रुत्वात्मन्यवधारय॥७३॥
जो आत्मानात्मविवेक अब तुझे जानना चाहिये वह मैं समझाता हूँ, तू उसे भलीभाँति सुनकर अपने चित्तमें स्थिर कर।