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अनुबन्ध-चतुष्टय
शिष्यकी विदाई इति श्रुत्वा गुरोर्वाक्यं प्रश्रयेण कृतानतिः। स तेन समनुज्ञातो ययौ निर्मुक्तबन्धनः ।।५७७॥
गुरुदेवके ऐसे वचन सुन शिष्यने अति नम्रतासे उन्हें प्रणाम किया और संसार-बन्धनसे मुक्त हो उनकी आज्ञा पाकर चला गया। गुरुरेवं सदानन्दसिन्धौ निर्मग्नमानसः। पावयन्वसुधां सर्वां विचचार निरन्तरम्॥५७८॥
और गुरुजी भी सच्चिदानन्द-समुद्रमें मग्नमन हुए सम्पूर्ण पृथिवीको पवित्र करते निरन्तर विचरने लगे।
अनुबन्ध-चतुष्टय इत्याचार्यस्य शिष्यस्य संवादेनात्मलक्षणम्। निरूपितं मुमुक्षूणां सुखबोधोपपत्तये॥५७९॥
इस प्रकार गुरु और शिष्यके संवाद-रूपसे मुमुक्षुओंको सुगमतासे बोध होनेके लिये यह आत्मज्ञानका निरूपण किया गया है।* हितमिममुपदेशमाद्रियन्तां
विहितनिरस्तसमस्तचित्तदोषाः । भवसुखविरता: प्रशान्तचित्ताः
श्रुतिरसिका यतयो मुमुक्षवो ये॥५८०॥ वेदान्तविहित श्रवणादिके द्वारा जिनके चित्तके समस्त दोष निकल गये हैं और जो संसारसुखसे विरक्त, शान्तचित्त, श्रुतिरहस्यके रसिक और मोक्ष-कामी हैं। वे यतिजन इस हितकारी उपदेशका आदर करें।
* इस श्लोकमें श्रीशंकराचार्यजीने ग्रन्थके अनुबन्ध-चतुष्टयका वर्णन किया है। इस ग्रन्थका अधिकारी मुमुक्षु पुरुष है, विषय आत्मज्ञान है, सम्बन्ध निरूप्य-निरूपक है और प्रयोजन 'मुमुक्षुओंको सुगमतासे आत्मज्ञानकी सिद्धि' है।