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विवेक-चूडामणि
कल्पना आत्मतत्त्वमें व्यर्थ ही करते हैं क्योंकि ब्रह्म तो सदैव अद्वितीय, असंग, चैतन्यस्वरूप, एक और अविनाशी है।
अस्तीति प्रत्ययो यश्च यश्च नास्तीति वस्तुनि। बुद्धेरेव गुणावेतौ न तु नित्यस्य वस्तुनः ।। ५७३ ॥
पदार्थका होना और न होना-ऐसा जो ज्ञान है वह बुद्धिका ही गुण है; नित्य वस्तु आत्माका नहीं।
अतस्तौ मायया क्लृप्तौ बन्धमोक्षौ न चात्मनि। निष्कले निष्क्रिये शान्ते निरवद्ये निरंजने। अद्वितीये परे तत्त्वे व्योमवत्कल्पना कुतः॥५७४॥
इसलिये आत्मामें ये बन्ध और मोक्ष दोनों मायासे कल्पित हैं, वस्तुतः नहीं हैं; क्योंकि आकाशके समान निरवयव, निष्क्रिय, शान्त, निर्मल, निरंजन और अद्वितीय परमतत्त्वमें कल्पना कैसे हो सकती है? न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः। न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ।। ५७५॥
अतः परमार्थ (वास्तविक बात) तो यही है कि न किसीका नाश है, न उत्पत्ति है, न बन्धन है और न कोई साधक है तथा न मुमुक्षु (मुक्त होनेकी इच्छावाला) है, न मुक्त है। सकलनिगमचूडास्वान्तसिद्धान्तरूपं
परमिदमतिगुह्यं दर्शितं ते मयाद्य। अपगतकलिदोष कामनिर्मुक्तबुद्धिं
स्वसुतवदसकृत्त्वां भावयित्वा मुमुक्षुम्॥५७६ ॥ हे वत्स! कलिके दोषोंसे रहित, कामनाशून्य तुझ मुमुक्षुको अपने पुत्रके समान समझकर मैंने बारम्बार सकल शास्त्रोंका सार-शिरोमणि यह अति गुह्य परम सिद्धान्त तेरे सामने प्रकट किया है।