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विवेक चूडामणि
ग्रन्थ-प्रशंसा
संसाराध्वनि तापभानुकिरणप्रोद्भूतदाहव्यथाखिन्नानां जलकाङ्क्षया मरुभुवि श्रान्त्या परिभ्राम्यताम् । अत्यासन्नसुधाम्बुधिं सुखकरं ब्रह्माद्वयं दर्शयन्त्येषा शंकरभारती विजयते निर्वाणसन्दायिनी ।। ५८१ ।।
संसार - मार्ग में नाना प्रकारके क्लेशरूपी सूर्यकी किरणोंसे उत्पन्न हुए दाहकी व्यथासे पीड़ित होकर मरुस्थलमें जलकी इच्छासे भटकते हुए थके-माँदे पुरुषोंको अति निकटमें ही अद्वितीय ब्रह्मरूप अत्यन्त आनन्ददायक अमृतका समुद्र दिखानेवाली यह श्रीशंकराचार्यजीकी निर्वाणदायिनी वाणी निरन्तर जयको प्राप्त हो रही है।
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्य श्रीमच्छंकरभगवत्कृतो विवेकचूडामणिः समाप्तः